Breaking News

ये गुनाह यकीनन गुना का नहीं है कि उसकी सरजमीं पर ऐसा हुआ. मीडिया चकरघिन्नी बनकर राजा और महाराजा के

गुनाहगार गुना नहीं, हम हैं इसके

ये गुनाह यकीनन गुना का नहीं है कि उसकी सरजमीं पर ऐसा हुआ. मीडिया चकरघिन्नी बनकर राजा और महाराजा के दरबार की रक्कासा की तरह नाचता रह गया. वो कमरा सन्नाटे से ही बातें करता रह गया, जिसके लिए कहा जा रहा था कि वहां दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच पौन घंटे लम्बा गोपनीय संवाद होगा. भाई लोग सड़क पर ही मिल लिए. जितना संभव था, उतना एक-दूसरे के प्रति अनुराग उड़ेला. मालाओं का आदान-प्रदान किया. गले लगे. फिर अपने-अपने वाहन के हवाले हो कर वहां से चलते बने. पूर्ववत अलग-अलग दिशाओं में. बात उस समय की है जब मैं भोपाल में राजनीतिक गलियारों की पत्रकारिता की शुरूआत कर रहा था. खबर मिली कि अटल बिहारी वाजपेयी भोपाल विमानतल पर आ रहे हैं. मामला किसी चुनाव के लिए टिकट वितरण की घमासान के काल का था. अच्छी खबर मिलने की उम्मीद में मैं भी वहां पहुंच गया. अटलजी विमान से उतरे ही नहीं. मैं मायूस था. तब एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझे निराश न होने की सलाह दी. कहा कि मुझे वहां हो रहे घटनाक्रमों का ही रस निकालकर खबर बनाना चाहिए.
लेकिन गुना के सोमवार को लेकर ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं दिखता. भला सूखी रेत को निचोडकर ऐसा कुछ करना कभी संभव हो पाया है! अपनेपन के रस से पूरी तरह चुके हुए ठहाके. संंबंधों की गरमी को अपने-अपने अहं की ठंडक के शीतगृह के हवाले कर चुके रवैये. नकलीपन की झुर्रियों और ढोंग वाली बिवाइयों से सुसज्जित आलिंगन. गुटबाजी की दीमक से सनी हुई दीवारों पर मित्रता का भ्रामक अध्याय लिखने का उपक्रम. इस सबमें कोई रस या पानी निकल सकता है भला! बस हुआ यू कि इस गला-लगाई के जरिये मीडिया मूर्ख बना और फिर सार्वजनिक रूप से उसे इस मूर्खता का प्रमाण पत्र भी बांट दिया गया. दिग्विजय ने साफ कहा कि यदि वे सिंधिया से न मिलें तब भी सवाल पूछा जाता है और यही प्रक्रिया मिल लेने पर भी अपनायी जाती है. सिंधिया ने भी मेल-मुलाकात के सवालों का यूं जवाब दिया, मानो कि मीडिया उनसे कोई निहायत ही अप्रासंगिक सवाल पूछ रहा हो.
मामला भले ही बाली-सुग्रीव वाली परिस्थिति का हो, किंतु समाचार जगत की जिज्ञासाओं को यूं कहकर लज्जित किया गया, गोया कि राम-भरत मिलाप की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगाए जा रहे हों. दरअसल इस सबके बाद हम उसी धूल में लट्ठ चला रहे हैं, जिस धूल का महल खुद हमने ही निर्मित किया था. हमारी कलम, माइक और वेबसाइट की स्क्रीन्स यूं माहौल बना रही थीं, जैसे कि प्रदेश में 45 मिनट के आदि शंकराचार्य बनाम मंडन मिश्रा रूपी राजनीतिक घटनाक्रम से बेहद सार्थक शास्त्रार्थ का प्रबंध हो जाएगा. दो नेताओं के बीच ऐसे-ऐसे विचारों का आदान-प्रदान होगा, जिनसे राज्य में हर किसान कर्ज मुक्त हो जाएगा. बेरोजगारों की लगातार बढ़ती कतार यकायक रोजगार करती मसरूफ नजर आने लगेगी. राज्य की हुकूमत अपने उगलते-निगलते निर्णयों वाली स्थिति से बाहर आकर सुचारू रूप से काम करने लगेगी. आम जनता अपनी तमाम समस्याओं से मुक्त होकर शांतिपूर्वक संतोषमय जीवन जीने लगेगी.

या फिर दोनों नेताओं की तल्खी खत्म हो जाएगी और राज्यसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस आलाकमान को अपनी परेशानियों का हल मिल जाएगा. जबकि ऐसा कुछ न होना था और न ही हुआ. हम बेगानी शादी में दीवाना अब्दुल्ला होते रहे और ताली पीटकर सारा मजमा देखने के बाद फिर अपने-अपने काम में लग गये. क्या हम में से कोई यह गुस्सा दिखाने का साहस करेगा कि आखिर वह कौन रहा, जिसने पैंतालीस मिनट वाली एकांत वार्ता की बात कहकर मीडिया को इस्तेमाल किया. मीडिया को ज्ञान की जुगाली का वह अवसर दिया, जिसके मूल में वास्तव में कुछ था ही नहीं. क्या हम दिग्विजय सिंह से यह पूछने की हिम्मत जुटा पाएंगे कि यदि सिंधिया से उनके इतने ही चिरस्थायी मधुर संंबंध हैं तो फिर क्यों आए दिन ऐसा होता है कि राज्य मंत्रिमंडल में शामिल इन दोनों गुटों के चेहरे आए दिन आपस में उलझ जाते हैं. क्या सिंधिया से यह सवाल नहीं किया जाना चाहिए कि घनघोर तरीके से असफल दिख रहे वचन पत्र के खिलाफ सड़क पर उतरने की उनकी घोषणा कब वास्तव में आकार लेगी.

सरकार का सवा साल हो गया है, वे और कितना वक्त देना चाहेंगे? मैं इस कॉलम के जरिये ये सवाल उठा रहा हूं. यह जानते हुए कि इनका कोई जवाब इन महान विभूतियों के स्तर से नहीं आएगा. ये उस दौर के राजनीतिज्ञों का मामला है, जो जानते हैं कि मीडिया में अब पहले जैसी धार नहीं है. आक्रामकता नहीं है. और ना ही है आत्मसम्मान कायम रखने की चिंता. इन दो नेताओं ने कल एक-दूसरे को जो फूलों के हार पहनाये वह दरअसल मीडिया के हिस्से आयी वह खालिस हार का मामला है, जो राज्य में उसकी नीयती बन चुकी है. पहले ही तमाशों की असलियत जनता तक पहुंचाते थे. अब हम खुद तमाशबीन बन चुके हैं. हम सच के नाम पर भ्रामक प्रचार-प्रसार करने लग गये हैं. दमदार कयास लगाने के नाम पर भग्नावशेष स्तर के पूवार्नुमान लगाना हमारी शैली का अविभाज्य अंग बन चुका है. कभी ताकत के सूत्र हमारे हाथ में हुआ करते थे, लेकिन आज हम दूसरों के कर-कमलों की कठपुतली मात्र बनकर रह गये हैं. और कुछ नहीं तो कम से कम कल की इस नौटंकी को समाचार पत्र में एक भी पंक्ति का स्थान न देकर हम यह जता सकते थे कि हमारा यूं गलत इस्तेमाल करना अब मुमकिन नहीं है. टीवी चैनल पर इससे संबंधित एक भी विजुअल न दिखाकर यह बता सकते थे कि हमारे भीतर का सच्चा पत्रकार आज भी जिंदा है. लेकिन हमने न ऐसा किया और न ही करेंगे. गुलामी की स्थिति यदि लत में बदल जाए तो वही होता है, जो होता दिखना प्रदेश में आम बात हो चुकी है.

Check Also

हम जैसे कार्यकर्ताओं को जहर दे दो _ धैर्यवर्धन

🔊 Listen to this शिवपुरीDec 10, 2024 at 10:51 _________________________ भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश …