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व्यापारी-कारोबारी चोर होते हैं? नोटबंदी से उनकी राष्ट्रीय और सामाजिक छवि क्या बेहतर हो रही है?

क्या व्यापारी-कारोबारी चोर होते हैं? नोटबंदी से उनकी राष्ट्रीय और सामाजिक छवि क्या बेहतर हो रही है?

नोटबंदी के असर की व्यापकता को समझने की पात्रता न तो आम जनता में है और न ही इस मामले को कवर कर रहे ज़्यादातर पत्रकारों में, जिसमें मैं भी शामिल हूं. हम इसके असर को सिर्फ एटीएम की कतारों की हाहाकार से नहीं समझ सकते. लोगों ने परेशानियों को ज़ाहिर किया है, मगर इस फैसले से गुस्से में नहीं हैं. अगर हैं तो वो बोल नहीं रहे इसलिए उनके मन में क्या है, इसका अंदाज़ा लगाना जोखिम का काम हो सकता है. आलोचक और समर्थक दोनों के पास कोई ठोस और अंतिम तर्क नहीं है. आने वाले समय में नई-नई सूचनाओं और फ़ैसलों के साथ हमारी समझ बदलती भी रहेगी. फैसले के समर्थक और विरोधी दोनों समझने में लगे हैं कि आगे क्या होगा? अभी क्या हो रहा है? अभियान को लेकर सवाल करना, काले धन के ख़िलाफ़ कार्रवाई का विरोध नहीं है. बहुत से लोग जानना चाहते हैं कि बोरियों में भरे नोट किनके यहां हैं, नाम पता चले तो थोड़ी खुशी भी मनाई जाए.

इस वक्त हमारे देश में एक साथ कई आर्थिक परिवर्तन हो रहे हैं. बजट अपने तय समय से पहले आ रहा है. एक देश-एक कर का दावा करने वाली जीएसटी लागू होने वाली है और यह नोटबंदी. इन तीनों फैसलों के व्यापक असर को समझने की चुनौती आई है. मुझे तो ऐसा लग रहा है कि कोई क्वांटम फिज़िक्स का सवाल पूछ कर भाग गया है और मैं समझने के लिए ट्यूशन खोज रहा हूं! आप बिजनेस अख़बारों को पढ़ें और बिजनेस मैन से बात करें. ऐसा नहीं कि उसमें आपको सही जानकारी मिलेगी, लेकिन उसकी दिशा तो समझ आ सकती है. ऐसा करने से कुछ सवालों के जवाब मिलेंगे और जवाब के नाम पर कई नए सवाल भी.


कहा जा रहा है कि दूरगामी परिणाम होंगे. क्या हम छह महीने बाद के समय को दूरगामी कहते हैं या छह साल बाद के समय को. क्या दूरगामी परिणाम क्या हमेशा अच्छे ही होते हैं? दूरगामी परिणाम हमेशा अनजान ही क्यों होते है? यह कहा जा रहा है कि काला धन के ख़िलाफ़ ऐतिहासिक और साहसिक कार्रवाई है. कार्रवाई का एक मतलब सज़ा भी है. अभी तक विदेशों और देश के भीतर आय से अधिक संपत्ति की घोषणा से जितने भी हज़ार करोड़ मिलने के दावे किए गए हैं, क्या आपने सुना है कि ऐसे लोगों को सज़ा भी मिली है. क्या काला धन बनाने वालों की अंतिम सज़ा टैक्स और पेनाल्टी ही है? जुर्माना लेकर ऐसे अपराधी को छोड़ देना क्या ठीक है, जिसके अभियान को हम राष्ट्रीय कर्तव्य समझकर घंटों में कतार में खड़े हैं. बरामदगी ही कार्रवाई है या सज़ा भी कार्रवाई है? क्या कोई बड़ा उद्योगपति या व्यापारी जेल गया है? कहीं ऐसा तो नहीं कि काले धन की बरामदगी की आड़ में काला धन बनाने वालों को आजीवन माफी देने की योजना चल रही है.

नोटबंदी की घोषणा के बाद सबकी निगाह सोने-चांदी के दुकानों की तरफ गई. इसके व्यापारी हाल के दिनों तक सरकार के फैसले का कड़ा विरोध कर रहे थे कि दो लाख से ऊपर की ख़रीदारी पर पैन नंबर देने से उनका धंधा चौपट हो जाएगा. वित्तमंत्री ने साफ कह दिया कि फैसला नहीं बदलेगा. अब ख़बरें पढ़ने को मिल रही हैं कि बड़ी संख्या में लोगों ने काले धन को सोने में बदल दिया है. अगर ये हुआ है तो फिर काले धन के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्या हुई? आप मीडिया की रिपोर्टिंग देखिए. सोना-चांदी दुकानों में भीड़ और सोने की बिक्री की ख़बर तो है, मगर एटीएम की कतारों की तरह ज़्यादा नहीं है. अब वही सोना-चांदी के व्यापारी क्यों विरोध नहीं कर रहे हैं? अगर इनकी दुकानों में भीड़ आई है, तो क्या सारे लोग पैन नंबर देकर ख़रीद रहे हैं? जिस पैन नंबर के कारण इनका धंधा कुछ समय पहले तक चौपट हो रहा था, अब क्यों नहीं हो रहा है? क्या ये लोग बिना पैन के दो लाख से कम की रसीद पर सोना बेच रहे हैं? देश भर में लाखों ऐसी दुकानें हैं. क्या सरकार के पास इतने कम समय में जांच करने का संसाधन हैं, कि सभी व्यापारियों को पकड़ लेंगे. सोना-चांदी वाले चुप क्यों हैं? क्या उनका धंधा चल निकला है?

सैंपल के तौर पर दो चार के यहां छापे पड़ने की ख़बरों का कोई मतलब नहीं है. आख़िर इन तीन चार दिनों में सोने के दाम क्यों बढ़े? क्या पूरे भारत में एक ही दाम है या हर दुकान ने अपने हिसाब से पैसे को एडजस्ट करने के लिए अलग-अलग दाम रखे हैं? इसकी जानकारी ज़रूरी है. बिजनेस स्टैंडर्ड और इकोनॉमिक टाइम्स जैसे अख़बार लिख रहे हैं कि काला-धन अब सोना बनकर जमा हो गया है. काला धन प्रोपर्टी और शेयरों की शक्ल में होता है. जिस नगदी ख़जाने पर हम झूम रहे हैं, वो बहुत कम होता है. सारी नगदी काला धन नहीं है. हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है कि आयकर विभाग के आंकड़ों के अनुसार, जब छापों में जो भी बरामद होता है, उसका मात्र 6 फीसदी नगद राशि होती है. बाकी सब सोना-चांदी, मकान-ज़मीन और शेयर होते हैं. तो कौन सा काला धन बरामद हुआ? अर्थशास्त्री लिख रहे हैं कि काला धन सिर्फ स्टॉक नहीं होता, बल्कि इसका बड़ा हिस्सा प्रवाहित होता रहता है. चलन में होता है. उसका कुछ नहीं बिगड़ा है.

बड़ी मात्रा में काले धन को सफेद करने की ख़बरें आ रही हैं. सुनने में आ रहा है कि दिल्ली में कई लोगों ने कामवालियों, ड्राईवरों को साल दो साल का एडवांस वेतन दे दिया है. कंपनियों के सेठों ने कर्मचारियों के खाते में अलग-अलग मद में पैसे जमा करा दिए हैं. अपने बहिखाते को एडजस्ट कर दिया है. जनधन खातों में भारी उछाल आया है. प्राइवेट अस्पतालों ने खातों में उछाल आ गया है. होटल और रिजार्ट सेक्टर के ज़रिये काला धन सफेद किया जा रहा है. सब सुनने में ही आ रहा है. ज़ाहिर है हो भी रहा है. चालीस से पचास फीसदी के कमीशन पर पैसों को सफेद करने की ख़बरें छप रही हैं. सरकार कह रही है कि ढाई लाख से कम की रकम पर पूछताछ नहीं होगी. किसानों की रकम पर पूछताछ नहीं होगी. अगर इतनी छूट सबको मिली है तो इसका लाभ उठाकर आप कल्पना कीजिए कि कितने लाख करोड़ की नगदी राशि बचा ली गई होगी. कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार ही ब्लैक को व्हाईट कर रही है. जैसे पहले की दो बड़ी योजनाओं में किया गया है.

ध्यान रहे यहां काले धन का मतलब नगदी हिस्से से ही है, जिसकी मात्रा काले धन के विशाल साम्राज्य में बहुत कम होती है. क्या काला धन बनने की प्रक्रिया समाप्त हो गई है? ऐसा रामराज्य अगर आ गया तो यकीन मानिये अब से कोई नेता हेलिकॉप्टर में चुनाव प्रचार नहीं कर पाएगा. हमें इसी जुनून में पूछना चाहिए कि अगर काले धन के ख़िलाफ़ कार्रवाई हो रही है तो धन का संग्रहकर्ता कहां पकड़ा जा रहा है. अगर वे बचा ले गए हैं तो आम जनता के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है. सरकार के पास कितने संसाधन हैं तो अगले बजट से पहले वो इन सबको पकड़ कर जनता के सामने हाज़िर कर देगी. अभी तक कितने ऐसे लोगों को हाज़िर किया गया है. क्या आप ऐसे किसी बड़े उद्योगपति का नाम जानते हैं? काला धन सौ पचास के पास तो होता नहीं होगा. क्या सरकार आनेवाले दिनों में लाखों लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का जोखिम उठाएगी? या बैंक तक पैसा लाना ही अंतिम मकसद है?

क्या कोई भी सरकार अपने आर्थिक वोट बैंक को चोट पहुंचा सकती है? आर्थिक वोट बैंक का मतलब है, वो तबका जो राजनीतिक दल का ख़ज़ाना भरता है. आज बच्चा बच्चा व्यापारी वर्ग को चोर की तरह देख रहा है. सबको लगता है कि हम ईमानदार हैं, इसलिए एटीएम की कतार में हैं, हमारे मोहल्ले का जो व्यापारी है, वो असली लुटेरा है. बोरियों में नोट उसके यहां पड़ा था, जो अब नष्ट हो गया है. अगर व्यापारी वर्ग ने राजनीतिक दलों को गुप्त ख़ज़ाना भर कर ऐसी सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल की है तो उन्हें मुबारक. यकीनन वे काफी इज़्ज़तदार और समझदार लोग होंगे! इसलिए इसी वक्त में तमाम व्यापार मंडलों को आगे आकर बताना चाहिए कि सही स्थिति क्या है. क्या डाकू मंगल सिंह, अली बाबा और चालीस चोर उन्हीं के गोदामों में छिपे होते हैं?

क्या व्यापार मंडलों की चुप्पी से मान लें कि जनता सही सोच रही है. उन पर भीतर से ऐसी मार पड़ी की है कि अंदर-अंदर आहें भर रहे हैं और बाहर-बाहर वाह वाह कर रहे हैं. यही इस फैसले का कमाल है. मेरी समझ कहती है कि आप सिर्फ धारणा के दम पर रात दिन जोखिम उठाने वाले व्यापारियों को चोर नहीं कह सकते. मेरी नज़र में व्यापारी-बनिया भी राष्ट्रनिर्माता हैं. वे हमारे देश के आर्थिक संरक्षक हैं. लेकिन जिस तरह से इनकी मंडियों में छापे मारने की ख़बरें आ रही हैं, ऐसा लगता है कि बोरियों वाले नोटों के सम्राट यही लोग हैं. आख़िर क्यों उन्हीं के यहां हर बार छापे पड़ते हैं?

व्यापारियों को बताना चाहिए कि नोटबंदी के फैसले के बाद उनका कारोबार सफेद होगा या नहीं होगा. अगर ऐसा है तो यह फ़ैसला उन्हें बेदाग़ व्यापार करने का अवसर भी प्रदान करेगा. उनका सम्मान समाज में फिर से बहाल होगा. इस पूरे अभियान में जिस तरह इन व्यापारियों को चोर निगाह से देखा गया है, उसे लेकर उन्हें चिंता तो होनी चाहिए. इन्हें भी बताना चाहिए कि वे किस किस सरकारी विभाग को कितना देते हैं, किस किस दल को अपने काले धन से चंदा देते हैं वर्ना गली गली में लोग जिस दुकानदार को देख रहे हैं, यही समझ रहे हैं कि इन्हीं के यहां सुल्ताना डाकू छिपा है.

धारणा के आधार पर देखेंगे तो सभी व्यापारियों को चोर समझ लेंगे, जबकि ऐसा नहीं है. मैं कई दुकानदारों को जानता हूं जो पूरी कोशिश करते हैं कि नियम से चलें, लेकिन सरकारी और राजनीतिक सिस्टम उन्हें चलने नहीं देता. किसी नेता के यहां छापे नहीं पड़ रहे हैं. थोक मंडियों और खुदरा दुकानों को अगर ऐसी सामाजिक प्रतिष्ठा है, तो उन्हें वाक़ई कुछ क्रांतिकारी करना चाहिए. बिज़नेस मैन और व्यापारी दो अलग वर्ग हैं. बिज़नेस मैन को झटका तो लगा है, मगर रूलाई सुनाई नहीं दे रही है. व्यापारियों के यहां छापे पड़ रहे हैं, लेकिन क्यों उन्हीं के यहां पड़ रहे हैं? क्या किसी बड़े बिल्डर के यहां छापा पड़ा? जबकि काला धन का सोर्स तो वे भी माने जाते हैं.

व्यापारी या बिज़नेसमैन इकहरा तबक़ा नहीं है. इसका जो हिस्सा भीतर की मार बर्दाश्त कर रहा है, वही हिस्सा उस मार के असर को कम करने में लगा है. काले धन को इस उस खाते में खपा कर. अगर इस तबके ने अंगड़ाई नहीं ली, यथास्थिति से बग़ावत नहीं कि वे राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था की निगाह में चोर का लेबल लेकर जीने के लिए अभिशप्त हैं.

कहां जा रहा है कि नोटबंदी के दो दिन के भीतर दो लाख करोड़ बैंकों में जमा हो गए. यह राशि और बढ़ सकती है. हम नहीं जानते कि दो लाख करोड़ आम ईमानदार लोगों के हैं या चोर लुटेरों ने भी अपना माल सफेद कर लिया है. क्या क़तारों में लगे लोगों ने सिर्फ मेहनत का पैसा बैंकों को लौटाया है या वो कुछ और पैसा है? इसलिए अभी बहुत कुछ जानना बाकी है. इसके व्यापक सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक असर होंगे. जल्दी क्या है अंतिम फैसला सुनाने की. जानते रहिए. समझते रहिए. देखते रहिए. आपका आपना मंथन न्यूज़                                                                                             पूनम पुरोहित 

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