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नज़रियाः खस्ताहाल सरकारी बैंक, आप पर क्या होगा असर?

दिल्ली 
रेटिंग एजेंसी आईसीआरए के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में भारतीय बैंकों का पिछले 10 सालों में सबसे ज़्यादा पैसा डूबा है. एजेंसी के मुताबिक भारतीय बैंकों ने माना है कि इस साल मार्च तक उनका 1 लाख 44 हज़ार करोड़ रुपया डूब गया.
इसमें से 83 फ़ीसदी पैसा सरकारी बैंकों का था. पिछले साल के मुक़ाबले यह रकम 62 फ़ीसदी ज़्यादा है.
इसका आम लोगों के लिए इसका क्या मतलब है, समझने के लिए बीबीसी संवाददाता कुलदीप मिश्र ने बात की आर्थिक मामलों के जानकार आशुतोष सिन्हा से.
बैंकिंग सिस्टम सबसे बुरे दौर में

वित्त मंत्री अरुण जेटलीइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

आईसीआरए के आंकड़ों के मुताबिक, बैंकों ने जो बात मानी है वह एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) से भी ज़्यादा खतरनाक है, इसे ‘राइट ऑफ’ कहा जाता है. इसका आम भाषा में मतलब हुआ कि बैंकों ने मान लिया है कि इस साल मार्च तक कर्ज़ के तौर पर दिया गया 1.44 लाख करोड़ रुपया अब वापस नहीं मिलने वाला यानी यह डूब चुका है. जबकि एनपीए में पैसे के वापस आने की उम्मीद बाक़ी रहती है.
इस नुकसान में 83 फ़ीसदी हिस्सा सरकारी बैंकों का है, इसका आम आदमी से सीधा का संबंध यह है कि जब कोई लोन लेने बैंक जाएगा तो उसे लोन मिलना लगभग ना के बराबर हो जाएगा, या फिर बहुत मुश्किल हो जाएगा. क्योंकि सरकारी बैंकों के पास अब क़र्ज़ देने के लिए पैसा ही नहीं बचा है.
कोई भी बैंक किस तरह लोन देता है यह समझना ज़रूरी है. मान लीजिए कि आपने बैंक में एक लाख रुपये जमा किए. लेकिन बैंक उस एक लाख रुपये को अपने पास नहीं रखता है वह उसे किसी और को कर्ज़ के तौर पर दे देता है.

देना बैंकइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

बैंक जहां आम लोगों को जमा की गई रकम पर चार फ़ीसदी तक ब्याज देता है, वहीं जिन्हें वह लोन देता है, उनसे ज़्यादा दरों पर ब्याज लेता है. अगर वह होम लोन है तो क़रीब 8.5 फीसदी या कंपनियों का लोन है तो इससे भी ज़्यादा दर पर लोन देता है. कम रेटिंग वाली कंपनियों को 11 से 12 फीसदी की दर पर भी लोन दिया जाता है. ब्याज की ये दरें अलग-अलग ग्राहकों पर निर्भर करती हैं.
इस तरह जो यह चार फ़ीसदी और 12 फ़ीसदी का अंतर है, वही बैंक की कमाई होती है. इसे ‘नेट इंटरेस्ट मार्जिन’ कहा जाता है.
इस तरह बाहर लोन के तौर पर दिया गया पैसा जब वापस आता है तभी बैंक आगे दूसरे लोगों को कर्ज़ देगा और आपको भी चार फ़ीसदी दे पाएगा. लेकिन अब सरकारी बैंकों की स्थिति बेहद खराब हो गई है.
उदाहरण के लिए अगर हम आईडीबीआई बैंक को देखें जिसमें अच्छी ख़ासी सरकारी हिस्सेदारी है उस बैंक का कुल एनपीए करीब 30 फ़ीसदी है. वहीं इसके मुकाबले अगर कोटक महिंद्रा बैंक को देखे जो कि एक निजी बैंक है तो उसका एनपीए मुश्किल से एक फीसदी होगा. इस तरह एक सरकारी बैंक का एनपीए एक निजी बैंक के मुक़ाबले लगभग 30 फ़ीसदी ज़्यादा है.
ऐसी स्थिति में बैंक नहीं चल सकते. इसमें कोई शंका नहीं होनी चाहिए कि अगर 100 रुपये में 30 रुपये वापस नहीं आ रहे तो बैंक नहीं चल सकते.
सरकारी योजनाएं और नौकरियों पर असर

बैंकों के ख़िलाफ़ प्रदर्शनइमेज कॉपीरइटGETTY IMAGES

आम लोगों को नए लोन मिलने पर इसका बुरा असर होगा, साथ ही लोक कल्याणकारी योजनाएं भी प्रभावित होंगी. आपको याद होगा कि सरकार ने इस बार के बजट में कहा था कि वह किसानों को आसान किस्तों पर कर्ज़ देना चाहती है. इस कर्ज़ के लिए पैसा कहां से आएगा जबकि सरकारी बैंक अब कर्ज़ देने में सक्षम ही नहीं है.
दूसरा असर लघु और मध्यम उद्योगों पर होगा, जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. भारत की अर्थव्यवस्था में लगभग 45 फ़ीसदी हिस्सेदारी लघु उद्योगों की रही है. एक से पांच लाख रुपये की रकम के लोन पर ही ये उद्योग चलते हैं. लेकिन बैंकों की खराब हालत से उन्हें यह रकम मिलना भी मुश्किल हो जाएगी. लघु उद्योग भारत में ज़्यादा लोगों को नौकरियों पर रखते हैं. इन बैंकों से लघु उद्योगों को लोन नहीं मिलेगा तो वहाँ नौकरियां भी मिलनी बंद हो जाएंगी.
इतनी रकम राइट ऑफ करने की वजह?

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किन परिस्थतियों में बैंकों को कोई रकम राइट ऑफ करनी पड़ती है. इसकी सीधी वजह यह है कि जब बैंक लोन देते हैं तो उस समय जो केवाईसी किया जाता है उसे सही तरीके से नहीं किया जाता. यानी दिए गए कर्ज़ की पुख्ता सुरक्षा गांरटी नहीं ली जाती.
इसी बाज़ार में निजी बैंक भी काम कर रहे हैं. सवाल है कि वे मुनाफ़े में कैसे चल रहे हैं? कुछ तो है जो निजी बैंक सही कर रहे हैं और जो सरकारी बैंकों को सीखना होगा.
जब भी बैंक कर्ज़ देते हैं तो उसके लिए अलग-अलग तरह की गारंटी ली जाती है. बैंकों को इस गारंटी को ‘सिक्योरिटाइज’ करना होगा. उनकी सुरक्षा की गारंटी लेनी होगी. इसका मतलब हुआ कि अगर बैंक किसी कंपनी को क़र्ज दे रहे हैं तो शुरुआती दो साल तक वे कोई ब्याज नहीं लगा रहे. लेकिन उसके बाद 25वें महीने से उस कंपनी के पास जो मुनाफ़े का पैसा होगा वह सबसे पहले उसमें से बैंक को अपने कर्ज़ का हिस्सा अदा करेगा.

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यह भी सोचना होगा कि आखिर ऐसे हालात बने ही क्यों. अगर बैंक काम करने लायक ही नहीं हैं तो आम लोग उसका भार क्यों उठाएं. आपको याद होगा कि अडानी समूह के ऑस्ट्रेलिया के खनन प्रोजेक्ट के लिए एसबीआई ने क़रीब छह हज़ार करोड़ रुपये का लोन देने की बात की. वह भी उस समय, जब अडानी समूह पहले ही 72 हज़ार करोड़ रुपये का लोन ले चुका था. ऐसी स्थिति में शायद उन्हें और लोन देना तो उचित नहीं है.
इन हालात में तो बैंक बंद ही कर देने चाहिए. यह ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’ वाली बात है.
हमें सोचना चाहिए कि बैंकों के काम-काज करने के तरीक़े को जनता सब्सीडाइज़ क्यों करें. बैंकों ने कर्ज़ दिया और उसे सही तरीके से सिक्योरिटाइज नहीं किया. वो अपने पैसे को रिकवर नहीं कर पाया. उस पर अब अगर कोई कहे कि जो बैंक सही से काम नहीं कर पाया, उसे बचाने के लिए हम फिर से टैक्स दें या पैसा दें. यह तो सरासर अनर्थ है.

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