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व्यक्ति से व्यक्ति, परिवार से परिवार और समाज से समाज मिलकर राष्ट्र का निर्माण होता है

व्ही .एस .भुल्ले ,व्यक्ति से व्यक्ति, परिवार से परिवार और समाज से समाज मिलकर राष्ट्र का निर्माण होता है, राष्ट्र की बहुरुपता में भाषा, धर्म, बोली, भू-भाग अलग-अलग हो सकते है। मगर राष्ट्र में रहने वाले हर नागरिकों की आशा अकांक्षा एक होती है। खुशहाल जीवन और संपन्नता जिसके लिये सत्ताये समय-समय पर अपने नागरिकों के संपन्न खुशहाल जीवन और बेहतर भविष्य के लिये अपनी समझ अनुसार मौजूद संसाधनों के बीच अपनी संस्थाओं के माध्यम से बेहतर वातावरण निर्माण करती रही है और आज भी राष्ट्र, जनकल्याण के लिये प्रयासरत है। 
मगर 80 के दशक के बाद जो दु:ख, दर्द, दहशत का भाव देश में पैदा हुआ उसकी अनुभूति लोगों को आज भी महसूस हो रही है। देश में मौजूद दु:ख, दर्द, दहशत किसी आक्रान्ता या विदेशी दुश्मन को लेकर हो यह संपूर्ण सच नहीं। सच तो यह है कि लाख कोशिशों के बावजूद हम 70 वर्ष की लंबी आजादी के बावजूद कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना सके जिससे देश का आम नागरिक या फिर हमारा महान राष्ट्र स्वयं को गौरान्वित मेहसूस कर सके। 
दुख की बात तो यह है कि आज हम अपने ही कारण अपनी ही व्यवस्था के बीच प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक सुविधा रोटी, कपड़ा और मकान से निजात नहीं पा सके है। दर्द की बात यह है कि हमारे ही अपने लोग बगैर किसी अपराध के हर वर्ष लाखों की तादाद में शुद्ध पेयजल संसाधन चिकित्सीय, सेवाओं के आभाव दवा, सडक़, र्दुघटना या फिर सामाजिक, प्राकृतिक आपदाओं के चलते आत्महत्या कर मर जाते है। 
दहशत की बात यह है कि हमारे अपने अपनो के ही बीच प्राकृतिक या प्रायोजित व्यवस्था में प्रमाणिकता, विजन, डिटेल, डी.पी.आर और उत्तरादायित्वों के आभाव में दहशत के बीच जीवन बिताते है। फिर वह समस्यायें, पारिवारिक, सामाजिक या फिर व्यवस्था संस्थागत ही क्यों न हो। 
देखा जाये तो शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ, सेवा, सडक़ संसाधन, कृषि, बिजली, पानी, शुद्ध खादन्न, सुरक्षित सुगम परिवहन सुगम सुरक्षित श्र्रम मजदूरी के क्षेत्र से जुड़ी समस्याये सभी दूर मौजूद है, दहशत का एक कारण हमारी प्रमाणिकता व नीतियों के स्थायित्व का आभाव भी है, जो हमें ही नहीं, हमारे आने वाली पीढ़ी और मौजूद सत्ता गत संस्थाओं के लिये चिन्ता का विषय होना चाहिए। 
मगर मौजूद वातावरण के बीच कैसे संभव हो, देश में खुशहाली यहीं हम सब का उत्तरादायित्व और कर्तव्य होना चाहिए क्योंकि किसी को यह संदेह नहीं होना चाहिए कि स्वार्थ पूर्ण संस्कार, व्यवहार हम देश के महान नागरिकों के बीच अब पैठ बना चुके है, कहीं वह हमारी महान संस्कृति की बर्बादी का आधार नहीं बन जाये।  

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