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निजीकरण की वकालत करती स्वास्थ्य नीति : अजय यादव जिला समन्वयक

मंथन न्यूज निजीकरण की वकालत करती स्वास्थ्य नीति : अजय यादव जिला समन्वयक
हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएं लोकल  रूप से लचर हैं. सरकारों ने लोक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी से लगातार अपने आप को दूर किया है. नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद से तो सरकारें जनस्वास्थ्य के क्षेत्र को निजी हाथों में सौपने के रास्ते पर बहुत तेजी से आगे बढ़ी हैं. विश्व स्वास्थ्य सूचकांक में शामिल कुल 188 देशों में भारत 143वें स्थान पर खड़ा है. हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में सबसे कम खर्च करने वाले देशों की पहली पंक्तियों में शुमार हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के अनुसार किसी भी देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद यानि जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए लेकिन भारत में पिछले कई दशकों से यह लगातार 1 प्रतिशत के आसपास बना हुआ है.
इन परिस्थितियों के बीच मार्च 2017 में भारत सरकार द्वारा तीसरी स्वास्थ्य नीति घोषित की गई है .इसे पहले की नीतियों के अपेक्षा बेहतर और  क्रांतिकारी पहल के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है लेकिन इस नीति में बहुत ही खुले तौर पर पीपीपी (सरकारी-निजी भागीदारी) मॉडल को बढ़ावा देने की वकालत की गयी है जिसके पीछे की मंशा बचे-खुचे स्वास्थ्य सेवाओं को भी निजी हाथों को सौंपना है. जन स्वास्थ्य लोगों की आजीविका से जुड़ा मुद्दा है. भारत की बड़ी आबादी गरीबी और सामाजिक-आर्थिक रुप से पिछड़ेपन का शिकार है. ऊपर से स्वास्थ्य सुविधाओं का लगातार निजी हाथों की तरफ खिसकते जाने से उनकी पहले से ही खराब स्थिति और खराब होती जायेगी. अध्ययन बताते हैं कि इलाज में होने वाले खर्चों के चलते भारत में हर साल लगभग चार करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे चले जाते हैं.
केन्द्र की पिछली सरकारों और राजस्थान, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश,कर्नाटक और मध्यप्रदेश जैसे सूबों की राज्य सरकारें पहले से ही निजीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ चुकी हैं. मध्यप्रदेश सरकार द्वारा तो पिछले साल 27 जिलों के अस्पताल को निजी हाथों में सौंपने का निर्णय कर लिया था. यही नहीं राज्य सरकार द्वारा ‘दीपक फाउंडेशन’ के साथ किये गए करार में सभी जरूरी दिशा निर्देशों की अवहेलना की गयी थी.करार से पहले न तो कोई विज्ञापन जारी किया गया था और न ही टेंडर निकाले गये थे. जनता, मीडिया व सामाजिक संगठनों के संयुक्त प्रयास से सरकार के इस कदम पर कुछ अंकुश जरूर लगा था. परन्तु अब केन्द्र सरकार द्वारा पेश की गयी स्वास्थ्य नीति में जिस तरह से खुले रुप से निजीकरण को बढ़ावा देने वाला रोडमैप प्रस्तुत किया गया है उससे ऐसे प्रयासों को बल मिलना तय है.
मध्यप्रदेश जनस्वास्थ्य की कई गंभीर चुनौतियों से जूझ रहा है जिसमें उल्टी-दस्त, मलेरिया से बड़े पैमाने पर हो रही मौतें, मोतियाबिंद आपरेशन में कई लोगों की आँखों की रौशनी का चले जाना, अनैतिक दवा परीक्षण, चिकित्सा शिक्षा में भ्रष्टाचार (व्यापम घोटाला), स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की पहल, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में राज्य का 40 प्रतिशत हिस्सेदारी खर्च को लगातार न देना, मातृत्व व शिशु मृत्यु होने के साथ ही कुपोषण से हो रही मौत आदि शामिल है लेकिन राज्य सरकार इनसे उबरने के लिए कोई नीति या मंशा पेश करने में नाकाम रही है.
भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य अधिकार बिल के माध्यम से स्वास्थ्य को “मौलिक अधिकार” के रूप में हासिल करने की जनता की माँग को एक बार फिर ठण्डे बस्ते में डाल दिया है जो की निराशाजनक है. जन स्वास्थ्य अभियान और उसके सहयोगी संगठन निजीकरण की वकालत करती स्वास्थ्य नीति का पुरजोर विरोध करते हैं और मांग करते हैं कि
• आम जनता के सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल के जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जनस्वास्थ्य सुविधाओं को पुन:स्थापित करते हुए इसे सुदृढ़ बनाया जाये.
• स्वास्थ्य व स्वास्थ्य सेवाओं के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में कानून बनाकर लागू किया जाये.
• केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं तथा चिकित्सा शिक्षा का निजीकरण को तत्काल बंद किया जाये.
• विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिशों के अनुसार सकल घरेलू उत्पाद का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा सावर्जनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाये.
• नैदानिक स्थापना अधिनियम 2010 (Clinical Establishment Act 2010) सभी राज्यों में लागू किया जाये.
• राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम को महज एक परियोजना के रूप में नहीं बल्कि एक स्थाई स्वास्थ्य कार्यक्रम के रूप में क्रियान्वित किया जाये .

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