बीते कुछ वर्षों के दौरान बैंकिंग सुधार के नाम पर केन्द्र सरकार ने बीमार पड़े सरकारी बैंकों में अपनी हिस्सेदारी को कम करने की रणनीति पर काम किया है. इस रणनीति के तहत IDBI से हिस्सेदारी कम करना केन्द्र सरकार के लिए सबसे आसान है क्योंकि IDBI बैंक नैशनलाइजेशन एक्ट के तहत नहीं आता और हिस्सेदारी कम करने में उसे किसी तरह की कानूनी अड़चन का सामना नहीं करना पडेगा.वहीं देश की सबसे बड़ी जीवन बीमा कंपनी एलआईसी लंबे समय से बैकिग करोबार में जगह बनाना चाह रही है. इसकी अहम वजह उसके पास बड़ी मात्रा में पड़ा कैपिटल है जो देशभर में एलआईसी पॉलिसी के ग्राहकों द्वारा बतौर प्रीमियम एकत्र किया जाता है. हालांकि पूर्व में केन्द्र सरकार ने एलआईसी के पास पड़े इस पैसे से अधिक कमाई करने के लिए उसे शेयर बाजार में निवेश करने की भी मंजूरी दे दी थी. इस फैसले से भी एलआईसी के ग्राहकों की जमा पूंजी पर खतरा बढ़ गया था.वहीं खुद एलआईसी बैंकिंग में एंट्री के लिए पूर्व में न सिर्फ IDBI बल्कि लगभग सभी सरकारी बैंकों में कुछ हिस्सेदारी खरीद के बैठी है. लिहाजा, मौजूदा समय में जब केन्द्र सरकार बैंकिंग सुधार के नाम पर IDBI की हिस्सेदारी छोड़ने की कवायद कर रही है तो एलआईसी के लिए भी मौका खुद के लिए एक बैंक तैयार करने का है.फैसले का वक्तगौरतलब है कि केन्द्र सरकार इस प्रस्ताव पर इंश्योरेंस रेगुलेटर का दरवाजा खटखटा चुकी है. रेगुलेटर को शुक्रवार को इस सौदे पर फैसला लेना है. वहीं मौजूदा समय में बिना बैंक हुए भी एलआईसी लोन मार्केट का एक बड़ा खिलाड़ी है. वित्त वर्ष 2017 के दौरान एलआईसी ने 1 ट्रिलियन रुपये से अधिक का कर्ज बाजार को दिया था और इसी कर्ज के कारोबार को बनाए रखने के लिए उसने लगभग सभी सरकारी बैंकों में कुछ न कुछ हिस्सेदारी खरीद कर रखी है. लेकिन अब खुद बैंक की भूमिका में आ जाने के बाद एलआईसी के सामने भी वही चुनौती होगी जिसके चलते ज्यादातर सरकारी बैक गंदे कर्ज बांटकर एनपीए के जाल में फंसे हैं. वहीं इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि एलआईसी के पास स्वतंत्र रूप से बैंक चलाने की क्षमता है और वह जनता के पैसे को सुरक्षित रखने में किसी अन्य सरकारी बैंक से ज्यादा सक्षम है.