मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में यूं तो शिवराज सिंह चौहान की करारी हार नहीं हुई. कड़े और क़रीबी मुक़ाबले में हार के बाद शिवराज सिंह चौहान बहुत दिन तक उस खुमारी से बाहर ही नहीं आ पाए जिसमें अमूमन हर वो व्यक्ति रहता है, जो 13 साल से अधिक वक़्त तक सत्ता का प्रमुख रहा हो.शिवराज ने पद से हटते ही कहा कि वे ‘आभार यात्रा’ निकालेंगे. ये भी कह दिया कि वे केंद्र की राजनीति में नहीं जाएंगे, यहीं एमपी में रहेंगे. बंगला खाली वक़्त करते अपने इलाक़े के लोगों के बीच अपनी छवि के विपरीत गरजते हुए बोल गए कि “फ़िक्र मत करना अभी टाइगर ज़िंदा है.” शिवराज की ये सक्रियता विपक्ष को भले ही पच भी जाती लेकिन उन्ही की पार्टी के नेताओं को पच नहीं रही थी. शिवराज नेता प्रतिपक्ष बनकर एमपी में अपनी सक्रियता बनाए रखना चाहते थे लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व ने दिल्ली बुलाकर उन्हें संकेत दे दिए कि वे एमपी में पार्टी के लिए बीता कल हो चुके हैं. शिवराज को भरोसे में लिए बिना पार्टी के दूसरे नेता तोड़-फोड़ के ज़रिए विधानसभा में स्पीकर का पद लेना चाहते थे. नज़र कांग्रेस की थी और शिवराज की भी.कहते हैं कि शिवराज इस फेवर में नहीं थे लेकिन बाद में वे भी जुटे. एक के बाद एक लगातार ग़लत होते निर्णयों और कांग्रेस की तरफ से सिर्फ नरोत्तम मिश्रा पर हमला ये बता रहा था कि कांग्रेस ने शिवराज को अघोषित कवच पहना रखा है.
इसके बाद जब नेता प्रतिपक्ष का चुनाव हो गया तब भी कमान शिवराज ने अपने ही हाथ में रखी रही. सदन के अंदर जब पहली प्रेस कॉफ्रेंस विपक्ष की हुई तो उसमें भी शिवराज ने ही कमान संभाली और बमुश्किल गोपाल भार्गव को मौका मिला. यहां तक कि सदन के अंदर वे नेता प्रतिपक्ष की तय कुर्सी पर ही एक दिन बैठे. मुख्यमंत्री कमलनाथ के खिलाफ किसान यात्रा का ऐलान भी शिवराज ने कर दिया कि वह किसानों से मिलेंगे और उनकी मुश्किलों को जानेंगे.पार्टी उनकी हर घोषणा को बहुत चतुराई से खारिज़ करती रही. उन्हें बता दिया गया था कि अब आप “विगत” होने की कगार पर हैं. लिहाज़ा शिवराज सरकार की तरह संगठन में भी सिर्फ घोषणा ही करते रह गए लेकिन उस पर पार्टी ने अमल कतई नहीं किया.ये सब कुछ उनकी पार्टी के ही कुछ नेता देखते रहे और अचानक दिल्ली से एक फरमान आ गया कि तीनों हारे हुए मुख्यमंत्रियों को पार्टी ने राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया. यानी अब एमपी के लिए जैसे प्रभात झा, वैसे ही शिवराज. दरअसल, भाजपा कांग्रेस की तुलना में कुछ ज्यादा ही क्रूर है. शुरू से लेकर अब तक जिस भी नेता ने “लार्जर देन पार्टी” खुद को समझना शुरू किया,उसका हश्र बहुत बुरा करती है. केंद्र में लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर एमपी में उमा भारती, बाबू लाल गौर तक इसके बहुत बड़े उदाहरण हैं.तो सवाल यही कि क्या शिवराज को किसी दूसरे राज्य का प्रभारी बना कर एमपी की सियासत से बाहर सिर्फ इसलिए किया जाएगा क्योंकि वे अपने बारे में फैसले में खुद लेने लगे थे. उन्होंने कहा था कि मैं कहीं बाहर नहीं जाऊंगा, यहीं एमपी में जिऊंगा और यहीं मरूंगा. शायद इस बयान को उनकी पार्टी ने कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया.इसमें कोई दो राय नहीं है कि एमपी में यदि भाजपा आज मजबूत है तो पहली वज़ह उमा भारती हैं और कहीं न कहीं स्वर्गीय अनिल दवे हैं. उन्होंने ही दिग्विजय सिंह सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए पार्टी का मज़बूत जनाधार बनाया. शिवराज ने तो उस जनाधार मेंटेन रखा. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि किसी बड़े कारोबारी का बेटा यदि अपने पिता के कारोबार को ठीक से संभाल सके, तो भी वो उस व्यक्ति की तुलना में तो कमज़ोर ही समझा जाता है, जो ज़मीन से उठकर अपने बूते बड़ा कारोबार खड़ा करता है.शिवराज को बना बनाया कारोबार मिला था.अब जिस नए चेहरे को भाजपा विकल्प के तौर पर आजमाती है, यदि वो अपना विकेट बचाते हुए लोकसभा चुनावों में बेहतर स्कोर खड़ा कर पाए, तो यक़ीनन शिवराज बीते दिनों की बात हो जायेंगे और यदि नया व्यक्ति फेल हुआ, तभी उनके लिए अवसर खुलेंगे.
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