चुनाव में काला धन, अक्षम आयोग
झूठ, अहंकार, आंकड़ों से नहीं, सृजन से होगा, समृद्ध, खुशहाल राष्ट्र निर्माण
बैवस, भोले-भाले, मजबूर लोगों पर संगठन के नाम गिरोह संस्कृति का कड़ा प्रहार
व्ही.एस.भुल्ले
विलेज टाइम्स समाचार सेवा।
यह इस महान राष्ट्र और लोकतंत्र का कड़वा सच है कि आज भी हमारे बीच या हम 80 फीसदी सस्ते राशन और सुरक्षित रोजगार के मोहताज लोग, उन व्यक्ति, परिवार, दल, संस्था, संगठन, परिवारों की सत्ता उन्मुख उनकी महत्वकांक्षाओं का शिकार है। जो हमारी मजबूरी, भोले-भालेपन व मुफलिसी का लाभ उठा सत्ता, संस्थानों को अपनी जागीर समझते है और लोकतांत्रिक संगठनों के नाम गिरोह बंद तरीकों से नई संस्कृति को जन्म दें, सेवा, विकास, कल्याण के नाम सतत सत्ता सुख भोगते है।
परिणाम कि आज हमारी मजबूर लोकतांत्रिक संस्थायें भी जिनके कंधों पर शसक्त, स्वच्छंद लोकतंत्र की रक्षा का भार है। वह भी अपने आपकों अपने कत्र्तव्य निर्वहन में सक्षम नहीं पाती। अभी हाल ही की बात है कि हमारे मुख्य निर्वाचन आयोग का दर्द चुनावों में काले धन के उपयोग को लेकर जिस तरह सामने आया और सॉशल मीडिया तथा चुनावों में काले धन के इस्तेमाल को रोकने में जिस तरह से उन्होंने अक्षमता व्यक्त की, वह समूचे देश ही नहीं उस आम नागरिक के लिए भी सोचने, समझने वाली बात है। जो टी.व्ही., अखबार या सभाओं में होने वाले झूठे प्रचार वादों या फिर नाते-रिश्तेदार, पहचान वालों की बातों या फिर धर्म, जाति, वर्ग के नाम पर बगैर सोचे समझे या क्षणिक पैसा या सामग्री के प्रलोभन बस अपना अमूल्य वोट उन लोगों को दे देते है जिनके लिए राजनीति अब सेवा, कल्याण का कार्य न होकर सिर्फ सत्ता सुख अकूत दौलत और झूठे अहम, अहंकार को प्राप्त करने की रह गई है। ऐसे में निर्वाचन आयोग का दर्द स्वभाविक है। जो उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस के मौके पर अपने उदबोधन में व्यक्त किया। क्योंकि मौजूदा कानून चुनाव में काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए पर्याप्त नहीं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ओपी रावत यहां तक कहते है कि डेटा चुराने वाली कैब्रिज एनालिटिका जैसी कम्पनियां और फर्जी खबरें फैलाने वालो को चुनावी प्रक्रिया के लिए खतरनाक है। जैसा कि उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस पर भारत में चुनावी लोकतंत्र की चुनौतियां मुद्दें पर आयोजित कार्यक्रम में कहा। उन्होंने चुनाव में धन का दुरुपयोग भारत और भारतीय चुनावों के लिए मुख्य चिन्ता का विषय भी बताया। लेकिन कहते है समाधान चिन्ता भर से नहीं बल्कि चिंतन से होता है।
काश लोकतंत्र मजबूती की दिशा व निष्पक्ष चुनावों और धन के दुरुपयोग रोकने पर देश में चिन्तन हुआ होता और सत्ता सुख उठाने वाले व्यक्ति, परिवार, संस्था, संगठनों ने इस पर निष्ठापूर्ण कार्य किया होता तो कोई कारण नहीं जो सस्ते चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से निष्पक्ष न हो पाये।
जिस तरह से आजादी के 70 वर्ष बाद आज तक हम राष्ट्र बाद, लोगों की सुरक्षा समृद्धि खुशहाली सहित मौजूद संसाधनों का सदउपयोग कर जनसंख्या नियंत्रण में संतुलन नहीं बैठा पाये, तो यह विशुद्ध रुप से हमारी सत्ता, संस्थाओं और उनमें बैठे लोगों की अक्षमता और असफलता ही है।
्रयह दुर्भाग्य कि बात है कि वह व्यक्ति, परिवार, संगठन, दल अनवरत सत्ता संघर्ष और सतत सत्ता में बने रहने के संघर्ष में कभी यह तय ही नहीं कर पाये कि राष्ट्र व राष्ट्र जन, कल्याण के अहम और सर्वोच्च मुद्दे क्या है। इतना ही नहीं वह उन लोकतांत्रिक संगठनों को भी गिरोह, प्रायवेट कम्पनी, कल्चर से भी सुरक्षित नहीं रख पाये। जहां राष्ट्र की समृद्धि, खुशहाली के लिए प्रतिभाओं को उचित अवसर और राष्ट्र समाज को समर्पित व्यक्तित्वों को स्थान मिल पाता और उनका वह मान-सम्मान, स्वाभिमान सुरक्षित रह पाता जो हर सभ्य, सजग, संस्कारिक व्यक्ति के जीवन में अहम होता है। मगर अफसोस कि बात तो यह है कि अब संघर्ष और सत्ता संस्कृति में डूबे व्यक्ति, परिवार, दल, संगठनों के नाम मौजूद तथाकथित गिरोह, प्रायवेट कम्पनियां सारे अहम मुद्दें भूल धन संख्या बल व भाड़े के प्रचार तंत्र के साथ बड़ी-बड़ी फर्जी खबर फैला, धन कमाऊ कम्पनियों या प्रचार-प्रसार के माध्यमों के सहारे विचार अब उन मुद्दों पर नहीं, जो राष्ट्र जन कल्यारण में अहम है। बल्कि वह येन-केन प्राकरेण हर कीमत पर सत्ता में वर्चस्व चाहते है।
वोट बैंक में तब्दील या औपचारिक, अनौपचारिक तौर पर झूठे प्रचार से प्रभावित हो वोट देने मजबूर भोले-भाले लोग अब इस स्थिति में ही नहीं कि वह धन, बल आधारित चुनाव संस्कृति के रहते कभी भी सत्ता का भाग बन सके और इस महान भूभाग पर वह भी समृद्ध, खुशहाल राष्ट्र निर्माण और मजबूत लोकतंत्र निर्माण में अपना योगदान दे पाये।
धनबल में मजबूत तथाकथित गिरोह बंद दलों, प्रायवेट लिमिटेडों के अकूत धन के आगे अब तो वोट भी बौना साबित हो रहा है। क्योंकि अकूत धन के चलते वैवस बेरोजगार, धर्म, जाति, वर्ग में बटे, व्हाट्सऐप, फेसबुक खेलते बैवस, बेरोजगार लोगों के पास न तो अब सहज रोजगार के अवसर है, न ही वह राजनीति के अवसर और न ही संसाधनों के अभाव में सृजन के अवसर। देखा जाये तो अब भीड़ के झुन्ड में तब्दील वोट डालने वालो के पास सिवायें वोट देने के शेष कुछ नहीं। जो इस महान भूभाग ही नहीं मौजूद सभ्यता, संस्कृति, संस्कारों के लिए भी घातक है। क्योंकि वोटों के महा युद्ध में लुटते-पिटते लोकतंत्र के इन पात्रों को ही नहीं पता कि कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ बोल रहा है। पहले भी मुद्दा, रोटी, कपड़ा, मकान, सुरक्षा और रोजगार था और आज भी वहीं ज्वलंत मुद्दा है।
मगर चुनाव के वक्त धन बल के सहारे प्रचार माध्यम या संख्या बल, संसाधनों के सहोर मुद्दा भुला वोट हथियाने में माहिर लोग, व्यक्ति, परिवार, दल, संगठन उन भोले-भाले बैवस, मजबूर लोगों की भावना, जनाकांक्षाओं को सत्ता व सरकार हासिल करने पलीता लगाने से नहीं चूकते। जो लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्य पूर्ण और आम भोले-भाले सस्ते राशन के मोहताज बैवस लोगों के लिए दर्दनाक ही कहा जायेगा।
जय स्वराज
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