मंथन न्यूज
विदेश नीति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस आकलन को दुरुस्त ही कहा जाएगा कि ‘हम तेजी से बदलती दुनिया में रह रहे हैं, जहां अनिश्चितताओं की भरमार है। इसमें संदेह नहीं कि दुनिया व्यापक राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक और इन सबसे भी बढ़कर तकनीकी बदलाव के दौर से गुजर रही है। सभी देश अपनी घरेलू और विदेश नीति के जरिए इस बदलाव से ताल मिलाने की कोशिश में हैं। अपने अब तक के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने पूरी ऊर्जा के साथ उन देशों से रिश्ते मजबूत बनाने के सार्थक प्रयास किए हैं, जिनके साथ भारत के रिश्ते अच्छे रहे हैं या अतीत में उनकी अनदेखी होती रही। ऐसे कुछ देशों का दौरा करने वाले वह पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने। वह कुछ ऐसे देशों में भी गए, जहां किसी भारतीय पीएम को गए लंबा अरसा हो गया था। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनके वरिष्ठ अधिकारियों ने भारत की कूटनीतिक सक्रियता की गति और दायरा बढ़ाया है। उनकी व्यापक पहुंच ने उभरती हुई वैश्विक शक्ति के रूप में भारत की साख को बढ़ाने का काम किया है।
बीते चार वर्षों में मोदी ने भारत के पड़ोसी देशों, दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों और पश्चिम एशियाई देशों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित किया है। इन क्षेत्रों में भारत के महत्वपूर्ण सामरिक एवं आर्थिक हित जुड़े हैं। मोदी की ‘एक्ट ईस्ट नीति की सफलता को इससे मापा जा सकता है कि इस साल गणतंत्र दिवस पर आसियान के सभी दस देशों के शासनाध्यक्ष दिल्ली में मौजूद थे। पश्चिम एशिया में भारी उथल-पुथल मची है। वहां तमाम देशों में तरह-तरह की खाइयां बन गई हैं। इन विरोधाभासों को मात देकर भारत अपने हित कुशलतापूर्वक साधने में सफल रहा है। इसके चलते सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ईरान, इसरायल और फलस्तीन जैसे अलग-अलग धड़ों वाले देशों से भारत के संबंध समय के साथ और बेहतर हुए हैं। यह वाकई एक बड़ी उपलब्धि है। अब जरूरत इसकी है कि भारत खासतौर से आसियान देशों के साथ व्यापारिक रिश्ते बेहतर बनाने पर विशेष ध्यान दे।
अफ्रीका और दक्षिण प्रशांत के देशों के साथ रिश्तों को नया आयाम देने में भी मोदी ने सराहनीय काम किया है। इंडिया-अफ्रीका सम्मेलन के दौरान सभी अफ्रीकी देशों की भारत में मौजूदगी ने यही दर्शाया कि वे भारत के साथ अपने संबंधों में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष वाले पचास एवं साठ के दशक वाली गर्मजोशी वापस चाहते हैं। दक्षिण प्रशांत देशों की बैठक को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा कि भारत को विकासशील देशों के साथ भी अपने संबंधों में निरंतरता कायम रखने की दरकार है।
दुनिया के महत्वपूर्ण नेताओं के साथ निजी रिश्ते बनाने में भी मोदी ने काफी मेहनत की है। इस फेहरिस्त में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे प्रमुख नाम शामिल हैं। कूटनीति की राह आसान करने वाले ऐसे रिश्ते राष्ट्रीय हितों से अहम नहीं हो सकते। भारत-चीन संबंधों में यह नजर भी आता है। मोदी ने चीन को लेकर भारत के रवैये को स्पष्ट करते हुए सभी संभावित क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम किया और असहमतियों को विवादों की शक्ल भी नहीं लेने दी। भारत के लिए महत्वपूर्ण है कि भारत-चीन सीमा पर शांति कायम रहे, लेकिन इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि चीन उलझे हुए मुद्दों को जल्द सुलझाने का उत्सुक भी नहीं है। पिछले साल डोकलाम विवाद के दौरान उससे दृढ़तापूर्वक निपटकर मोदी ने बढ़िया किया। चीन के साथ पाकिस्तान की बढ़ती नजदीकियां गंभीर चिंता का विषय हैं। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ भारत के खिलाफ ही काम करेगा। इसके अलावा चीन भारत के सभी पड़ोसी देशों के साथ भी आक्रामक रूप से संबंध मजबूत बना रहा है। इसमें उसका आर्थिक रुतबा भी मददगार बना हुआ है। इसकी वजह से मालदीव और नेपाल जैसे देशों के साथ भारत के रिश्ते और जटिल हुए हैं। इन देशों को संदेश देने की जरूरत है कि भारत अपने हितों के साथ कोई समझौता नहीं चाहेगा। चीन के उदय से चिंतित जापान, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ रिश्तों को धार देकर मोदी ने एकदम सही रणनीति अपनाई, लेकिन इस मोर्चे पर और प्रयास करने की आवश्यकता है।
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के कुछ अस्थिर बयानों और फैसलों ने उन क्षेत्रों में भारत-अमेरिकी रिश्तों की थाह का अनुमान लगाना मुश्किल कर दिया है, जो भारत के हितों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। इनमें व्यापार और आव्रजन जैसे मुद्दे शामिल हैं। हालांकि अमेरिका व्यापक संदर्भों में भारत को एक महत्वपूर्ण साझेदार मानता है और मोदी को श्रेय दिया जाना चाहिए कि वह अमेरिका से रक्षा और अंतरिक्ष जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में उच्च तकनीक हासिल करने में सफल हुए हैं, लेकिन ईरान पर लगाए गए ट्रंप के प्रतिबंध भारत की ऊर्जा सुरक्षा और कनेक्टिविटी पर संकट के बादल खड़े कर रहे हैं।
पुराने वफादार दोस्त रूस के साथ रिश्तों को निभाने में भी मोदी सफल रहे हैं, लेकिन भारत को इस पर ध्यान देना होगा कि मास्को अब पाकिस्तान के साथ अपने रिश्ते बढ़ा रहा है। बदलते समीकरण अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक खास पहलू होता है और कोई भी देश अतीत की स्मृतियों के सहारे नहीं रह सकता।
जलवायु परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसी चुनौतियों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुधारों के माध्यम से वैश्विक मंचों पर नई दिल्ली की भूमिका व्यापक बनाने जैसे मुद्दों पर बीते चार वर्षों में भारत ने अहम भूमिका निभाई है। वैश्विक स्तर पर भारत की साख का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में न्यायाधीश के लिए उसने ब्रिटेन के उम्मीदवार को मात दी।
भारत की विकास गाथा में योगदान के लिए दुनियाभर में फैले भारतवंशियों को जोड़ने में भी मोदी सफल हुए हैं। अमेरिका में प्रवासी भारतीयों का तबका भारत के लिए प्रभावी लॉबी का काम करता है। आने वाले दिनों में यह तबका अमेरिकी राजनीति में अहम भूमिका अदा करेगा। पाकिस्तान की बात करें तो उसे लेकर मोदी की नीतियों ने एक चक्र पूरा कर लिया है। उन्होंने अपने पूर्ववर्तियों की ही तरह इस उम्मीद के साथ शुरुआत की कि पाकिस्तान को अक्ल आएगी और वह भारत के प्रति अपने नकारात्मकता के भाव को तिलांजलि देगा। मोदी के तमाम प्रयासों के बावजूद पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आया और पठानकोट से लेकर उरी में हमलों को अंजाम देता रहा। यथार्थवादी मोदी ने इसके जवाब में सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम देकर पाकिस्तान से संवाद बंद कर दिया। अब भारत यह प्रक्रिया तभी शुरू करेगा, जब पाकिस्तान आतंक का रास्ता छोड़ने की पहल करेगा। इमरान खान द्वारा सकारात्मक संकेत देने के बावजूद भारत को अपना रवैया नरम करने की जरूरत नहीं। उम्मीद कभी भी विदेश नीति का आधार नहीं हो सकती।
