मध्यप्रदेश में घर की आग से झुलसती कांग्रेस?
राजनीति. कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्रा खत्म हो चुका है जिसकी वजह से पार्टी में टकराहट और कड़वाहट सतह पर उभर आई है. कांग्रेस के पास कोई ऐसा राज्य नहीं है जहां गुटबाजियां न हों. ताजपोशी के लिए नेताओं की आपस में धींगामुश्ती आम बात है. कभी न कभी जिम्मेदार नेताओं के मन मुटाव और बयानबाजियां पार्टी में आतंरिक लोकतंत्रा को खत्म कर देती हैं. पार्टी में युवा तुर्को के बढ़ते बगावती तेवर से आलाकमान सोनिया गांधी और राहुल गांधी की पकड़ ढीली पड़ती दिखती है.
मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में पार्टी की हालत बेहद खस्ता है.
मध्यप्रदेश में युवा तुर्क ज्योंतिरादित्य सिंधिया और राज्य के मुख्यमंत्राी कमलनाथ में तीखी नोंकझोंक सुर्खियां बनी है. दिल्ली दरबार ने दोनों लोगों को तलब भी किया. इसके बाद दोनों नेताओं ने मीडिया के सामने आकर आतंरिक द्वंद्व को छुपाने की कोशिश भी की. राज्य में कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्राी पद के प्रबल दावेदार रहे सिंधिया ने अपने पार्टी के वचन पत्रा प्रतिपूर्ति पर सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि इसे लेकर वह सड़क पर उतरेंगे जबकि इसका जवाब मुख्यमंत्राी कमलनाथ ने भी उसी तल्खी से दिया और कहा कि फिर उतर जाएं.
राज्य के दोनों नेताओं की तल्खी की खबर दिल्ली दरबार तक पहुंच गई जिसके बाद पार्टी हाईकमान ने किसी तरह दोनों के बीच बढ़ती तल्खी को कम करने को कहा लेकिन यह स्थिति कब तक बनी रहेगी. इस तरह से कांग्रेस की डूबती नैय्या को नहीं बचाया जा सकता. इसका ताजा उदाहरण दिल्ली का आम चुनाव है जहां पार्टी एक भी सीट नहीं निकाल पायी. यह बेहद शर्मनाक स्थिति है.
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्राी कमलनाथ के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी के रुप में ज्योतिरादित्य सिंधिया उभरे हैं जबकि राजस्थान में अशोक गहलोत के सामने सचिन पायलट हैं. दोनों राज्यों के युवा नेता बेहद सुलझे हुए हैं और केंद्र सरकार में मंत्राी भी रह चुके हैं लेकिन हालात यह है कि दोनों युवा नेताओं से मुख्यमंत्रियों की नहीं पटती जिसकी वजह से समय-समय पर तल्खियां दिखती रहती हैं. मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्राी कमलनाथ और सिंधिया के मध्य चल रहा शीतयुद्ध मीडिया की सुर्खियां बटोर रहा है. मध्यप्रदेश और राजस्थान में चुनाव पूर्व इस तरह का माहौल पैदा किया गया था जिससे यह लगता था कि दोनों राज्यों में अब युवापीढ़ी को केंद्रीय नेतृत्व कमान सौंप सकता है लेकिन अंततः ऐसा नहीं हुआ और दिल्ली दरबार यानी दस जनपथ का आशीर्वाद मध्यप्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत को मिला जिसकी वजह से दोनों युवा नेताओं के समर्थकों में काफी गुस्सा था.
मध्यप्रदेश और राजस्थान में पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच में इसे लेकर शक्ति प्रदर्शन भी हुए थे. हालांकि सिंधिया और पायलट ने अपने-अपने राज्यों में जमकर मेहनत की थी लेकिन ऐन वक्त पर मुख्यमंत्राी की कुर्सी दोनों नेताओं के हाथ से फिसल गई. मध्य प्रदेश से इस तरह की खबरें आती रहीं कि नाराज सिंधिया भाजपा में शामिल होकर विधायकों को तोड़ सकते हैं. फिलहाल अभी ऐसा नहीं हुआ लेकिन हाल में मुख्यमंत्राी कमलनाथ और सिंधिया में बदलते मिजाज का पारा पूरे समीकरण को बदल सकता है.
सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है. राजनेताओं की तरफ से गांधी परिवार की गणेश परिक्रमा पार्टी को ले डूबेगी जिसकी वजह से कांग्रेस में आतंरिक लोकतंत्रा का खात्मा हो चला है. दिल्ली जैसे राज्य में पार्टी अपना जनाधार खो चुकी है. हाल में दिल्ली के आए चुनाव परिणाम ने कांग्रेस की छिछालेदर करा दिया जबकि कांग्रेस और उसका शीर्ष नेतृत्व भाजपा की हार से खुश होता रहा. कांग्रेस और सोनिया गांधी ने बदली स्थितियों और पराजय के कारणों पर कभी गंभीरता से विचार नहीं किया जबकि वे दिल्ली में रह कर पूरे देश में पार्टी को चलाती हैं.
कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व इस समस्या के लिए खुद जिम्मेदार और जवाबदेह है क्योंकि दस जनपथ पार्टी की कमान अपने हाथ से कभी नहीं देने जाना चाहता. सोनिया गांधी को अच्छी तरह मालूम है कि अगर कांग्रेस जैसे दल से गांधी परिवार का नियंत्राण खत्म हुआ तो उसे अपने पारिवारिक अस्तित्व के लिए संघर्ष करना होगा.
कांग्रेस में आज भी उन नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने गांधी परिवार के बेहद करीबी होने के नाते राज्यों में सत्ता की मलाई काटी लेकिन तमाम राजनेता योग्य होने के बाद भी कामयाबी हासिल नहीं कर पाए क्योंकि उन पर दस जनपथ का हाथ नहीं रहा. बदली परिस्थितियों में खत्म होती कांग्रेस कोई सबक नहीं लेना चाहती जिसकी वजह से उसका पतन हो रहा है. हालांकि यह भी जमीनी सच्चाई है कि गांधी परिवार के इतर का कोई भी पार्टी अध्यक्ष वर्तमान दौर में पार्टी की एकता को बनाए नहीं रख सकता.
वैसे ऐसी बात भी नहीं है कि गांधी परिवार के अलग कोई दूसरा व्यक्ति पार्टी का अध्यक्ष नहीं हुआ है. कई बार दूसरे लोगों को भी पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया है. कांग्रेस में बढ़ती कलह और गुटबाजी को देखते हुए कोई दूसरा अध्यक्ष डूबती कांग्रेस को संभाल नहीं पाएगा लेकिन एक बात तो तय है कि युवा सोच वाले नेता केंद्रीय नेतृत्व के लिए चुनौती बन रहे हैं क्योंकि ऐसे राजनेताओं में भक्तवादी सोच नहीं होती और पार्टी में विचारवादी सोच रखना चाहते हैं. वे कांग्रेस को एक निर्धारित छवि से बाहर निकालना चाहते हैं.
कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को मध्यप्रदेश और राजस्थान में ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट को राज्य के मुख्यमंत्राी की कमान सौंपनी चाहिए थी लेकिन हाईकमान चाहकर भी ऐसा नहीं कर पाया. इसकी वजह भी होगी क्यांेकि कमलनाथ और अशोक गहलोत की छवि के आगे दोनों नेता कहीं भी नहीं ठहरते लेकिन दोनों के पास नई सोच और भरपूर ऊर्जा है. प्रयोग के तौर पर एक बार पार्टी को यह प्रयोग अपनाना चाहिए था. केंद्रीय नेतृत्व को लगता था कि दोनों राज्यों में युवा नेताओं के हाथ कमान जाने के बाद गुटबाजी अधिक प्रखर हो सकती है जिसे संभालना सिंधिया और पायलट के बूते की बात नहीं होती.
दूसरी बात गांधी परिवार को कमलनाथ और गहलोत जैसे विश्वसनीय सिपहसालार भी नहीं मिल पाते क्योंकि कमलनाथ इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अब सोनिया गांधी के बेहद करीबी माने जाते हैं. यही स्थिति अशोक गहलोत की भी है हालांकि जिम्मेदारी संभालते और युवाओं को अधिक से अधिक जोड़ते जिसकी वजह से दोनों राज्य के मुख्यमंत्रियों के सामने कभी-कभी दोनों युवा चेहरे विपक्ष की भूमिका अदा करते हुए दिखते हैं.
मध्यप्रदेश में हाल में मुख्यमंत्राी और सिंधिया के मध्य छिड़ा शीतयुद्ध किसी से छुपा नहीं है जबकि राजस्थान में बच्चों की मौत के मामले में सचिन पायलट अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं. इस तरह दोनों राज्यों में आतंरिक गुटबाजी और कलह जिस तरह शिखर पर आती दिखती हैं उससे यह नहीं लगता कि यहां कांग्रेस और बेहतर प्रदर्शन करेगी. फिलहाल कांग्रेस को हर हाल में आतंरिक लोकतंत्रा को मजबूत बनाना होगा. मध्यप्रदेश जैसे हालात से उबरना होगा. उसे दिल्ली की हार का हल निकालना होगा. अगर ऐसी स्थितियां पैदा नहीं होती हैं तो आने वाला दिन कांग्रेस और उसके भविष्य के लिए ठीक नहीं होगा.