भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव ने संकेत दिए हैं कि राम मंदिर के मुद्दे पर उनकी पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार अध्यादेश भी ला सकती है. बुधवार को उन्होंने कहा कि राम मंदिर निर्माण का मुद्दा फिलहाल कोर्ट में है, लेकिन अध्यादेश भी एक रास्ता है. राम माधव का कहना था, ‘अध्यादेश का रास्ता हमेशा खुला है, लेकिन मामला अभी कोर्ट में है और चार जनवरी को इस पर सुनवाई है. हमें उम्मीद है कि अदालत इसे त्वरित ढंग से निपटाएगी. अगर ऐसा नहीं होता है, तो हम अन्य रास्ते भी तलाशेंगे.’
फिलहाल चल रहे संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान जिन मुद्दों पर खूब शोर हो रहा है, उनमें से अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा भी एक है. हाल के समय में इस सवाल ने हिंदू संगठनों और साधु-संतों को काफ़ी उत्तेजित किया है कि आख़िर मौजूदा केंद्र सरकार कब राम मंदिर के निर्माण के लिए क़ानून लेकर आएगी. बीते साढ़े चार साल से भी ज़्यादा के कार्यकाल में वह इस संबंध में कोई विधेयक लेकर नहीं आई, इसलिए अब यह मांग भाजपा के अंदर से भी ज़ोरदार तरीक़े से उठाई जा रही है कि सरकार अध्यादेश लाकर राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ़ करे.
मौजूदा संसद सत्र के ख़त्म होने में अभी करीब दो हफ्ते का वक्त बाक़ी है. इसलिए यह देखना होगा कि सरकार राम मंदिर को लेकर अध्यादेश लाती है या नहीं. कई जानकारों का कहना है कि वह ऐसा कर सकती है. लेकिन इसके कारणों को लेकर राय बंटी हुई है. कुछ जानकारों का कहना है कि राम मंदिर मुद्दे पर सनातन समाज की ‘बेक़ाबू’ होती भावनाओं और अपने 2014 के चुनावी वादे के मद्देनज़र सरकार अध्यादेश ला सकती है. वहीं, दूसरी तरफ़ कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नरेंद्र मोदी सरकार अर्थव्यवस्था के अहम मोर्चों के अलावा पिछले आम चुनाव में किए अन्य कई वादों को पूरा करने में विफल रही है. उनके मुताबिक़ इसलिए इन मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए अब उसने वापस राम मंदिर का रुख़ किया है और इसी के तहत वह संसद में अध्यादेश भी ला सकती है.ऐसे में यह जान लेना ज़रूरी है कि मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा ने अपने पिछले घोषणापत्र में क्या कहा था, और अब जिस तरह मंदिर के लिए अध्यादेश लाए जाने की बात हो रही है, क्या वह उसके चुनावी वादे से मेल खाता है.अस्पष्ट चुनावी वादापिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में जो ढेर सारे वादे किए थे, उनमें राम मंदिर का मुद्दा काफ़ी नीचे था. पार्टी ने उसे ‘सांस्कृतिक विरासत’ बताते हुए वादा किया था कि वह ‘संविधान के दायरे में’ रह कर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए सभी संभावनाएं तलाशने का काम करेगी.जानकारों का कहना है कि इस चुनावी वादे में मंदिर को लेकर तो भाजपा का रुख़ स्पष्ट होता है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि उसके निर्माण के लिए पार्टी करेगी क्या. वे सवाल करते हुए कहते हैं कि पार्टी ने जो वादा किया था, उसमें ‘संवैधानिक दायरे’ का ज़िक्र कर क्या यह संदेश नहीं दिया गया कि मंदिर निर्माण के लिए कोई ऐसा रास्ता चुना जाएगा जिस पर सभी राजनीतिक दलों व वर्गों की सहमति हो और किसी तरह का विवाद पैदा न हो.अब सवाल उठता है कि क्या अगले आम चुनाव से पहले आनन-फ़ानन में अध्यादेश लाना ही वह ‘संभावना’ थी जिसका केवल ज़िक्र भाजपा ने अपने घोषणापत्र में नहीं किया था. अगर ऐसा है, तो मंदिर निर्माण को लेकर सरकार के इस तरीक़े पर कई संवैधानिक व राजनीतिक सवाल उठते हैं. इसका एक कारण तो अध्यादेश का अपने आप में विवादित होना है.सरकारों का हथियार रहा है अध्यादेशदरअसल, संविधान के अनुच्छेद 123 के मुताबिक़ जब संसद सत्र में न हो, और विषय इतना ‘गंभीर’ या ‘ज़रूरी’ हो जिसके लिए सत्र के आने तक का इंतज़ार नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति अध्यादेश पारित कर सकते हैं. लेकिन कौन सी स्थिति ‘बेहद गंभीर’ या ‘ज़रूरी’ होनी चाहिए, इसे लेकर किसी तरह की स्पष्टता नहीं है.जानकारों के मुताबिक़ यही वजह है कि अलग-अलग सरकारों ने अध्यादेश को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. वे अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से विषयों व उनसे जुड़ी स्थितियों को ‘बेहद गंभीर’ और ‘ज़रूरी’ बता कर अध्यादेश पारित करवाती रही हैं. रिपोर्टों के मुताबिक 1950 से अब तक 700 से भी ज़्यादा अध्यादेश पारित करवाए गए हैं. यानी 68 सालों का औसत निकालें तो सरकारों को हर साल दस से भी ज़्यादा बार कोई विषय बेहद ‘गंभीर’ या ‘आपात’ वाला लगा है.राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्टअध्यादेश का इतिहास जानने के बाद इस संभावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि दरअसल चुनाव की ‘गंभीरता’ के मद्देनज़र सरकार मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश ला सकती है. लेकिन क्या राष्ट्रपति के लिए भी किसी वर्ग विशेष की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा कोई मुद्दा इतना गंभीर होगा कि वे सरकार की सलाह पर अध्यादेश पारित कर देंगे. क्या राष्ट्रपति को इस बात का भान नहीं होगा कि देश की सर्वोच्च अदालत में अयोध्या का मुद्दा लंबित है और एक और महत्वपूर्ण वर्ग है जो इससे जुड़े अदालती फ़ैसले को ही मान्यता देने की बात करता है?अतीत में सरकारों ने ग़ैरज़रूरी तरीक़े से अध्यादेश पारित करवाए हैं, लेकिन पूर्व राष्ट्रपतियों की आशंका के चलते उन्होंने अलग-अलग विषयों पर अध्यादेश लाने से हाथ पीछे भी खींचे हैं. मौजूदा सरकार ने भी कई मुद्दों को अहम या गंभीर बताते हुए अध्यादेश पारित करवाए हैं. लेकिन इसे लेकर जहां राजनीतिक विरोधियों ने उसकी आलोचना की है, वहीं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेश के इस्तेमाल को लेकर सरकार को आगाह भी किया था.वहीं, अध्यादेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी पूर्व में कह चुका है कि सरकारें राष्ट्रपति के इस विशेषाधिकार का ग़लत इस्तेमाल नहीं कर सकतीं. वह अदालती मामलों में सरकारी दख़ल को भी नापसंद करता रहा है. एससी-एसटी एक्ट के कथित रूप से कमज़ोर होने के मामले में यह हो चुका है. जब सरकार कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ संशोधन विधेयक लेकर आई तो कोर्ट ने नोटिस जारी कर सरकार से जवाब-तलब किया था. राम मंदिर के लिए अध्यादेश लाए जाने की स्थिति में इन दो संस्थानों की भूमिका भी अहम होगी.दो दलों की उछल-कूदबहरहाल, इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की सक्रियता देखें तो केवल भाजपा और शिवसेना प्रमुख रूप से अध्यादेश लाने की बात करते नज़र आते हैं. कई लोग सवाल करते हैं कि क्या केवल दो दलों की उछल-कूद से राम मंदिर का मुद्दा संवैधानिक रूप से बेहद ‘गंभीर’ और ‘ज़रूरी’ हो जाता है, क्योंकि बाक़ी लगभग अन्य सभी दल सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार करने की बात करते हैं. इनमें भाजपा विरोधी ख़ेमे के नेताओं के अलावा उसके सहयोगी दल भी शामिल हैं.वहीं, मंदिर निर्माण के लिए क़ानून लाने पर ख़ुद भाजपा की स्थिति स्पष्ट नहीं है. पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हाल में भाजपा के संसदीय दल की बैठक में राम मंदिर का मुद्दा उठा था. इसमें कुछ सांसदों ने पूछा कि मंदिर का निर्माण कब होगा. इस पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उनसे धैर्य रखने को कहा. गृह मंत्री ने सांसदों से कहा कि विपक्ष का कोई नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जितना लोकप्रिय नहीं है और ऐसे में उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए काम करना चाहिए.दिखावे के लिए अध्यादेश?लेकिन कई जानकार मानते हैं कि सरकार लोगों को यह यक़ीन दिलाने के लिए अध्यादेश ला सकती है कि भाजपा ने राम मंदिर के लिए सिर्फ़ प्रतिबद्धता नहीं जताई, बल्कि उस पर अमल भी किया. अध्यादेश संसदीय विधेयक की तरह ही होते हैं. लेकिन ये अस्थायी होते हैं और इन्हें छह महीने के अंदर स्थायी कराना होता है. अगर ऐसा न हो तो अध्यादेश निष्प्रभावी हो जाता है.एक वर्ग के मुताबिक राम मंदिर से जुड़ा अध्यादेश इस सत्र में लाकर सरकार उसे आम चुनाव से ठीक पहले बजट सत्र में पेश कर पारित कराने का प्रयास कर सकती है. यह देखना होगा कि वह इसमें सफल रहेगी या नहीं, लेकिन इस सबसे वह यह तो जता ही देगी कि मंदिर के लिए उसने हरसंभव प्रयास किया, साथ ही यह भी कहेगी कि उसने जो किया अपने चुनावी वादे के मुताबिक़ संविधान के दायरे में किया.
मौजूदा संसद सत्र के ख़त्म होने में अभी करीब दो हफ्ते का वक्त बाक़ी है. इसलिए यह देखना होगा कि सरकार राम मंदिर को लेकर अध्यादेश लाती है या नहीं. कई जानकारों का कहना है कि वह ऐसा कर सकती है. लेकिन इसके कारणों को लेकर राय बंटी हुई है. कुछ जानकारों का कहना है कि राम मंदिर मुद्दे पर सनातन समाज की ‘बेक़ाबू’ होती भावनाओं और अपने 2014 के चुनावी वादे के मद्देनज़र सरकार अध्यादेश ला सकती है. वहीं, दूसरी तरफ़ कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नरेंद्र मोदी सरकार अर्थव्यवस्था के अहम मोर्चों के अलावा पिछले आम चुनाव में किए अन्य कई वादों को पूरा करने में विफल रही है. उनके मुताबिक़ इसलिए इन मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए अब उसने वापस राम मंदिर का रुख़ किया है और इसी के तहत वह संसद में अध्यादेश भी ला सकती है.ऐसे में यह जान लेना ज़रूरी है कि मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा ने अपने पिछले घोषणापत्र में क्या कहा था, और अब जिस तरह मंदिर के लिए अध्यादेश लाए जाने की बात हो रही है, क्या वह उसके चुनावी वादे से मेल खाता है.अस्पष्ट चुनावी वादापिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में जो ढेर सारे वादे किए थे, उनमें राम मंदिर का मुद्दा काफ़ी नीचे था. पार्टी ने उसे ‘सांस्कृतिक विरासत’ बताते हुए वादा किया था कि वह ‘संविधान के दायरे में’ रह कर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के लिए सभी संभावनाएं तलाशने का काम करेगी.जानकारों का कहना है कि इस चुनावी वादे में मंदिर को लेकर तो भाजपा का रुख़ स्पष्ट होता है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि उसके निर्माण के लिए पार्टी करेगी क्या. वे सवाल करते हुए कहते हैं कि पार्टी ने जो वादा किया था, उसमें ‘संवैधानिक दायरे’ का ज़िक्र कर क्या यह संदेश नहीं दिया गया कि मंदिर निर्माण के लिए कोई ऐसा रास्ता चुना जाएगा जिस पर सभी राजनीतिक दलों व वर्गों की सहमति हो और किसी तरह का विवाद पैदा न हो.अब सवाल उठता है कि क्या अगले आम चुनाव से पहले आनन-फ़ानन में अध्यादेश लाना ही वह ‘संभावना’ थी जिसका केवल ज़िक्र भाजपा ने अपने घोषणापत्र में नहीं किया था. अगर ऐसा है, तो मंदिर निर्माण को लेकर सरकार के इस तरीक़े पर कई संवैधानिक व राजनीतिक सवाल उठते हैं. इसका एक कारण तो अध्यादेश का अपने आप में विवादित होना है.सरकारों का हथियार रहा है अध्यादेशदरअसल, संविधान के अनुच्छेद 123 के मुताबिक़ जब संसद सत्र में न हो, और विषय इतना ‘गंभीर’ या ‘ज़रूरी’ हो जिसके लिए सत्र के आने तक का इंतज़ार नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति अध्यादेश पारित कर सकते हैं. लेकिन कौन सी स्थिति ‘बेहद गंभीर’ या ‘ज़रूरी’ होनी चाहिए, इसे लेकर किसी तरह की स्पष्टता नहीं है.जानकारों के मुताबिक़ यही वजह है कि अलग-अलग सरकारों ने अध्यादेश को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. वे अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से विषयों व उनसे जुड़ी स्थितियों को ‘बेहद गंभीर’ और ‘ज़रूरी’ बता कर अध्यादेश पारित करवाती रही हैं. रिपोर्टों के मुताबिक 1950 से अब तक 700 से भी ज़्यादा अध्यादेश पारित करवाए गए हैं. यानी 68 सालों का औसत निकालें तो सरकारों को हर साल दस से भी ज़्यादा बार कोई विषय बेहद ‘गंभीर’ या ‘आपात’ वाला लगा है.राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्टअध्यादेश का इतिहास जानने के बाद इस संभावना को ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि दरअसल चुनाव की ‘गंभीरता’ के मद्देनज़र सरकार मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश ला सकती है. लेकिन क्या राष्ट्रपति के लिए भी किसी वर्ग विशेष की धार्मिक भावनाओं से जुड़ा कोई मुद्दा इतना गंभीर होगा कि वे सरकार की सलाह पर अध्यादेश पारित कर देंगे. क्या राष्ट्रपति को इस बात का भान नहीं होगा कि देश की सर्वोच्च अदालत में अयोध्या का मुद्दा लंबित है और एक और महत्वपूर्ण वर्ग है जो इससे जुड़े अदालती फ़ैसले को ही मान्यता देने की बात करता है?अतीत में सरकारों ने ग़ैरज़रूरी तरीक़े से अध्यादेश पारित करवाए हैं, लेकिन पूर्व राष्ट्रपतियों की आशंका के चलते उन्होंने अलग-अलग विषयों पर अध्यादेश लाने से हाथ पीछे भी खींचे हैं. मौजूदा सरकार ने भी कई मुद्दों को अहम या गंभीर बताते हुए अध्यादेश पारित करवाए हैं. लेकिन इसे लेकर जहां राजनीतिक विरोधियों ने उसकी आलोचना की है, वहीं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अध्यादेश के इस्तेमाल को लेकर सरकार को आगाह भी किया था.वहीं, अध्यादेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट भी पूर्व में कह चुका है कि सरकारें राष्ट्रपति के इस विशेषाधिकार का ग़लत इस्तेमाल नहीं कर सकतीं. वह अदालती मामलों में सरकारी दख़ल को भी नापसंद करता रहा है. एससी-एसटी एक्ट के कथित रूप से कमज़ोर होने के मामले में यह हो चुका है. जब सरकार कोर्ट के आदेश के ख़िलाफ़ संशोधन विधेयक लेकर आई तो कोर्ट ने नोटिस जारी कर सरकार से जवाब-तलब किया था. राम मंदिर के लिए अध्यादेश लाए जाने की स्थिति में इन दो संस्थानों की भूमिका भी अहम होगी.दो दलों की उछल-कूदबहरहाल, इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की सक्रियता देखें तो केवल भाजपा और शिवसेना प्रमुख रूप से अध्यादेश लाने की बात करते नज़र आते हैं. कई लोग सवाल करते हैं कि क्या केवल दो दलों की उछल-कूद से राम मंदिर का मुद्दा संवैधानिक रूप से बेहद ‘गंभीर’ और ‘ज़रूरी’ हो जाता है, क्योंकि बाक़ी लगभग अन्य सभी दल सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का इंतज़ार करने की बात करते हैं. इनमें भाजपा विरोधी ख़ेमे के नेताओं के अलावा उसके सहयोगी दल भी शामिल हैं.वहीं, मंदिर निर्माण के लिए क़ानून लाने पर ख़ुद भाजपा की स्थिति स्पष्ट नहीं है. पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ हाल में भाजपा के संसदीय दल की बैठक में राम मंदिर का मुद्दा उठा था. इसमें कुछ सांसदों ने पूछा कि मंदिर का निर्माण कब होगा. इस पर गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उनसे धैर्य रखने को कहा. गृह मंत्री ने सांसदों से कहा कि विपक्ष का कोई नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जितना लोकप्रिय नहीं है और ऐसे में उन्हें लोकसभा चुनाव के लिए काम करना चाहिए.दिखावे के लिए अध्यादेश?लेकिन कई जानकार मानते हैं कि सरकार लोगों को यह यक़ीन दिलाने के लिए अध्यादेश ला सकती है कि भाजपा ने राम मंदिर के लिए सिर्फ़ प्रतिबद्धता नहीं जताई, बल्कि उस पर अमल भी किया. अध्यादेश संसदीय विधेयक की तरह ही होते हैं. लेकिन ये अस्थायी होते हैं और इन्हें छह महीने के अंदर स्थायी कराना होता है. अगर ऐसा न हो तो अध्यादेश निष्प्रभावी हो जाता है.एक वर्ग के मुताबिक राम मंदिर से जुड़ा अध्यादेश इस सत्र में लाकर सरकार उसे आम चुनाव से ठीक पहले बजट सत्र में पेश कर पारित कराने का प्रयास कर सकती है. यह देखना होगा कि वह इसमें सफल रहेगी या नहीं, लेकिन इस सबसे वह यह तो जता ही देगी कि मंदिर के लिए उसने हरसंभव प्रयास किया, साथ ही यह भी कहेगी कि उसने जो किया अपने चुनावी वादे के मुताबिक़ संविधान के दायरे में किया.