विलेज टाइम्स समाचार सेवा।
72वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर स्वराज के मुख्य संयोजक व्ही.एस.भुल्ले ने बुद्धिजीवियों के बीच अनौपचारिक चर्चा के दौरान कहा कि संविधान से विमुख सत्तायें, शासक ही स्वराज के मार्ग में बड़ी बाधा है। जब तक सत्ताओं का सर्वोत्तम समर्पण उनकी आस्था संविधान की मंशा अनुरुप नहीं होगें तब तक स्वराज का सपना अधूरा ही रहेगा।
क्योंकि जिस तरह से आजाद भारत में संविधान की भावना अनुरुप सत्तायें राष्ट्रीय भावना एवं कानून का राज स्थापित करने में असफल, अक्षम साबित होती रही है। उसके पीछे के कारण जो भी रहे हो। मगर वर्तमान साक्ष्य इस बात के गवाह है कि कार्य तो हुआ मगर पूर्ण मनोयोग से नहीं हो सका। परिणाम कि जो निष्ठा पूर्ण भागीदारी राष्ट्र जनकल्याण में राष्ट्रजनों की होना थी। उसका मार्ग हमारी सत्तायेंं सुनिश्चित कर,उसे प्रस्त नहीं कर पायी।
संसाधन बेतहासा अंदाज में लुटते रहे, सिकुड़ते संसाधनों, सुविधाओं, सेवाओं के चलते अभावग्रस्त लोग बैवस, मजबूर, बिलबिलाते रहे। मगर हमारी सत्तायें उनको ढांढस बधा, उनके आंसू पोछने में अक्षम, असफल साबित होती रही।
आज जब हम 72वें स्वतंत्रता दिवस को मनाने जा रहे तब नैसर्गिक, सुख सुविधाओं सेवाओं से मेहरुम बिलबिलाते लोगों की चींथपुकार यह समझने काफी है कि न तो हम संविधान उन्मुख देश का वातावरण बना सके, न ही संवैधानिक संस्थाओं को उत्तरदायी बना, उन्हें कत्र्तव्य निष्ठ और जबावदेह बना सके। बल्कि कत्र्तव्य विमुख सत्ता का कारवां स्वयं के स्वार्थो में डूब ऐसा चला सके कि भले ही हम एक महान लोकतंत्र होने का दम क्यों न भरते हो। मगर लोक जनकल्याण के नाम हमारे पास दिखाने ऐसे कोई प्रमाणिक प्रमाण मौजूद नहीं, जिस पर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था गर्व कर, हमारे नागरिक स्वयं को गौरान्वित मेहसूस कर सके।
अहम अहंकार और निहित स्वार्थो के रथ पर सवार सत्ताओं का परचम तो विभिन्न रुपों में रथ के ऊपर लहराता रहा। मगर रथ के चक्के से कितनी अनगिनत जनभावनाओं जनाकांक्षाओं का कत्लेयाम हुआ। इसकी गिनती शायद हमारे पास नहीं। अगर सत्ताओं ने संविधान अनुरुप अपनी सर्वोच्च आस्था, समर्पण की पराकाष्ठा कर मौजूद कानून और जनाकाक्षांओं का सम्मान कर, उनकी रक्षा की होती तो आज भारतीय समाज धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा में बट राष्ट्रीयता के अभाव में खण्ड-खण्ड हो प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक सुविधायें हासिल करने, नहीं विलख रहा होता और प्रतिभायें, पलायन या संसाधनों की सहजता के आभाव में घुट-घुट कर फ्रेस्टेट हतोत्साहित न होती, न ही मुफीद शिक्षक, शिक्षा के आभाव में लंबी चौड़ी बेरोजगारों की फौज बैजान घूम रही होती।
राष्ट्र व राष्ट्रजन तथा हमारी सत्तायें अगर अहम, अहंकार से बाहर निकल, अगर अपने कत्र्तव्य निर्वहन में जुट जाये तो देश में बढ़ती जनसंख्या, सुकुड़ते संसाधन कोई बड़ा सवाल नहीं। मगर सत्ताओं का भाई भतीजा, दल, विचार बाद इस महान राष्ट्र जन को घसिटने पर मजबूर कर देता है। ऐसे में बड़ी जबावदेही उन नौजवानों, माता-बहिनों, बुजुर्गो की है। जो आज स्वयं में डूब स्वयं गगन चुम्बी सपने देख टी.व्ही., फेसबुक, व्हाटसऐप या कुबेरपति बनने की दौड़ में नैतिक अनैतिक, स्वीकार्य, अस्वीकार्य कुछ भी समझने तैयार नहीं।
हम भारतवर्ष के लोगों को समझना होगा यह देश, राज्य, गांव, गली हमारा है और हम उन महान पीडिय़ों की संतान है जो 1000 वर्ष के दर्दनाक, शर्मनाक, गौरवपूर्ण इतिहास के साक्षी है न कभी हम हारे है, न हारेगें।
जरुरत आज एक जुट हो राष्ट्रीयता के भाव के साथ संविधान अनुरुप नई शुरुआत कर सत्ता के उन सौपानों तक पहुंचने की है जहां से हम अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया चुनाव के माध्यम से वहां पहुंच, अपने राष्ट्र व जन को 5 वर्ष नहीं 1 वर्ष में उस दिशा में ले जा सकते है। जहां से समृद्धि, खुशहाली साफ नजर आती हो और स्वराज की मंजिल नजदीक।
जय स्वराज
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