मुख्यमंत्री कमलनाथ की राजनीतिक मजबूरियां मध्यप्रदेश को पता नहीं कितने बोझ के तले दबाने पर उतारू हैं. विधान परिषद के गठन की कवायद ऐसा ही एक बड़ा बोझ होगा. मध्यप्रदेश के भविष्य को लेकर एक बहुत ही शर्मनाक चित्र सामने आने की आशंका सता रही है. दो लाख करोड़ रूपए के कर्जं में डूबे मध्यप्रदेश को निठल्लों का एक नया आश्रम खोलने के लिए भारी कीमत अदा करना पड़ेगी. इससे जाहिर है प्रदेश को कोई फायदा नहीं होगा लेकिन कमलनाथ और कांग्रेस को राजनीतिक फायदा दिख रहा है.
राज्य की राजनीति के वे तमाम दैदीप्यमान चेहरे, जिन्हें आज की तारीख में आप थकेले, नाकारा, जनाधार-विहीन आदि किसी भी समभावी संबोधन से आंख मूंदकर नवाज सकते हैं, उनके सत्ता की मुख्यधारा में आने का रास्ता खुल जाएगा. होने को तो हो सकता है कि इस कवायद को राजनीतिक चारे के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हों, और मामला खिंचते रहे, अगर वे ऐसा कर रहे हैं तो यह प्रदेश पर उनका एहसान माना जाना चाहिए. और अगर वे वाकई सीरियस हैं तो मानना चाहिए कि कमलनाथ बाहरी हैं और उनका प्रदेश की जनता से कोई सरोकार नहीं है. देश में इस समय कुल सात राज्यों में ही विधान परिषदें हैं.
उत्तरप्रदेश, कर्नाटक, बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और जम्मू कश्मीर में तमिलनाडू में भी विधान परिषद हुआ करती थी लेकिन इस राज्य ने इसे समाप्त कर दिया. आंध्र का विभाजन होने के बाद अलग हुए तेलंगाना राज्य में इसका गठन हो गया. लेकिन बिहार से अलग हुए झारखंड ने इससे खुद को दूर रखा. संसद ने राजस्थान, असम, उड़ीसा और मध्यप्रदेश को भी विधान परिषद के गठन की मंजूरी दी हुई है. इनमें से किसी भी राज्य ने ऐसी कोशिश नहीं की.
राज्यों के गठन में मध्यप्रदेश कई राज्यों से मिल कर गठित हुआ था लिहाजा इसके बड़े और भावनात्मक रूप से जुड़े नहीं होने के कारण यहां इसकी अनुमति थी. छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद मध्यप्रदेश अब बड़ा राज्य भी नहीं रहा. अगर तब से अब तक ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई तो अब पैसठ साल बाद आखिर इसकी क्या जरूरत हैं? संविद सरकार के कार्यकाल के बाद ऐसी मजबूर सरकार मध्यप्रदेश दूसरी बार ही देख रहा है. सवाल यह भी है कि जब विधानसभा की ही सरकार में ज्यादा भूमिका नहीं रह गई है तो फिर विधान परिषद का औचित्य क्या है. विधानसभा की बैठकों की संख्या में भी पिछले दो दशकों में लगातार गिरावट आ रही है.
तो लगता ऐसा है कि राज्य में अगले विधानसभा चुनाव के समय सरकार की उपलब्धियां गिनाने के दो मंच रहेंगे. सार्वजनिक मंच पर यह काम दो से तीन मिनट में निपट जाएगा. क्योंकि वहां किसानों की यथासंभव कर्ज माफी सहित शायद एकाध और बातें गिनायी जा सकें. दूसरा मंच दीवाने-खास की तरह संचालित होगा. वहां राज्य मंत्रिमंडल के सदस्यों सहित कांग्रेस विधायक, पार्टी पदाधिकारी और सरकार को समर्थन दे रहे बसपा, सपा सहित निर्दलीय विधायक भी होंगे. इस भीड़ के बीच मुख्यमंत्री कमलनाथ सरकार की वास्तविक उपलब्धियां गिनायेंगे. बताएंगे कि कैसे उन्होंने इस कार्यकाल में बड़बोले मंत्रियों और विधायकों की हरेक हरकत पर आंख मूंदकर रखी.
किस तरह वे बसपा विधायक रामबाई सहित मंत्री पद के लालची अन्य जन प्रतिनिधियों द्वारा तरेरी जा रही आंखों का नीची नजर करते हुए मुकाबला करते रहे. अंत में वे यह पूरी ताकत से गिनाएंगे कि क्या कर उन्होंने पहले से ही भारी-भरकम कर्ज से लदे प्रदेश के कोढ़ में विधानपरिषद नामक खाज का बंदोबस्त किया. सिर्फ इसलिए ताकि जनता की नजर में सिरे से नालायक घोषित पार्टीजनों को विधानपरिषद नामक साबुन से नहलाकर लायक साबित किया जा सके
नाथ सरकार अब तक यूं ही दबी-कुचली और डरी-सहमी चल रही है, इसलिए तय मानिये कि उपलब्धियां गिनाने का यह काम दीवाने-खास में शायद महीनों तक चल जाएगा. आज से पहले तक कहीं न कहीं यह उम्मीद थी कि किसी रूप में एक बार यह दिख जाएगा कि प्रदेश में वाकई जनता द्वारा निर्वाचित सरकार चल रही है. विधानपरिषद के गठन की कवायद को देखकर यह भ्रम किसी तिलिस्म की तरह टूट गया. जो आचरण नाथ कर रहे हैं, वह आवाम द्वारा नहीं, बल्कि कांग्रेसियों द्वारा चुनी गयी सरकार वाला ही दिखता है.
मुख्यमंत्री जी, विधानसभा ने ही प्रदेश का ऐसा क्या कल्याण कर दिया कि अब विधान परिषद का दुमछल्ला लेकर आप हाजिर हो गये हैं? दरअसल, आप अपने दल के शरीर एवं आत्मा, हर स्तर से कुंठित लोगों की खुशी के लिए जनता का पैसा बर्बाद करने पर आमादा हो गये हैं. विधानपरिषद के जरिये आप उन काहिल कांग्रेसियों को सत्ता सुख भोगने का मौका देना चाह रहे हैं, जिनकी औकात इतनी भी नहीं कि अपने मोहल्ले के चुनाव में जीत जाएं.
इसके लिए आप पहले ही दो लाख करोड़ रुपए के कर्ज से दबे राज्य पर और अधिक खर्च का बोझ लादने जा रहे हैं. ऐसे निकम्मे लोग आपकी मजबूरी हो सकते हैं, उस जनता की नहीं, जिसने आपको बदलाव के वक्त के नाम पर सरकार चलाने का जनादेश दिया था. आपका क्या है? अफसरों से और कर्ज लेने की फाइल बढ़ाने का कहना है. दन्न से ऐसा हो जाएगा. विधानपरिषद बन जाएगी. फिर होगा यह कि ग्यारह नये मंत्री बनाकर आप विधायकों सहित थकेले पार्टीजनों की राजनीतिक सत्ता पिपासा को पूरा करने का रास्ता खोल देंगे.
राज्य की उस जनता का क्या होगा, जो टुकुर-टुकुर यह देखते हुए निराशा के चरम पर पहुंच रही है कि प्रदेश में उसकी सुविधाओं से जुड़े तमाम अहम काम पैसे के अभाव में अधूरे हैं. सड़कें नहीं हैं. बिजली की अघोषित कटौती पंद्रह साल बाद एक बार फिर रोज का दर्द बन गयी है. रोजगार के संसाधन सिमट गये हैं. सरकारी शिक्षा के हाल बुरे हैं और प्राइवेट सेक्टर में ऐसी लूट है कि मध्यम वर्ग तक बच्चों की तालीम को लेकर चिंता से घिर गया है. सरकार के इस कदम का कोई विरोध कम से कम राजनीतिक स्तर पर तो नहीं ही होगा.
क्योंकि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा में भी ऐसे नेताओं की संख्या कमनहींहै, जो किसी भी काम के नहीं हैं, लेकिन जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं उनके भीतर लगातार हलचल मचाती रहती हैं. इसलिए भाजपा भी यही चाहेगी कि विधानपरिषद का गठन हो और भविष्य में उसकी सरकार बनने की सूरत में वह भी इस सदन के जरिये गधे तथा घोड़े के बीच का फर्क खत्म कर सके. निश्चित ही कमलनाथ देश के मौजूदा मुख्यमंत्रियों में सर्वाधिक मजबूर हैं. विवशता में इंसान कई समझौते करता है, लेकिन यदि मुख्यमंत्री के स्तर पर भी ऐसा होने लगे तो इसे राज्य का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है. इसे जनादेश का बलात्कार भी कह सकते हैं.
कमलनाथ से गुजारिश है कि प्रदेश का कबाड़ा न करें. इस महंगे प्रयोग की इस राज्य में कोई जरूरत ही नहीं है. हां, यह उनकी निजी जरूरत हो सकता है और अपने स्वार्थ के लिए पहले ही तंगहाली झेल रहे राज्य पर ऐसा बोझ डालना तानाशाही का प्रतीक ही कहा जाएगा.